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संयत
सिद्धांतरहस्य ॥१४॥
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विचार
॥१४०॥
छ स्थानपतित छे. अने उपरला बेथी अनंतगुण हीन छे. परिहा०सं०नुं पण एमज छे. सूक्ष्म सं० संयत, पहेला ३थी अनंतगुण अधिक छे. सूक्ष्म संप० साथे तुल्य, जो अधिक होय तो अनंतगुण अधिक होय अने हीन होय तो अनंतगुण हीन होय. यथाख्यात साथे अनंत गुण हीन छे. यथाख्यात संयत, सामायिकादि४ संयतोथी अनं. नगुण अधिक छे, स्वस्थानमां (यथा० साथे) तुल्य छे. एओन अल्पबहुत्व:-+सामा० ने छेदोप० ए बेना जघन्य पर्यवो थोडा छे, तेथी परिहाना ज० पर्य० अनंतगुणा छे, तेथी परिहाना उ०पर्य० अनंतगुणा छे, तेथी सामा० ने छेदोपना उ०पर्य० अनंतगुणा अने माहोमाहे तुल्य छे, तेथी सूक्ष्म सं०ना ज० पर्य० अनं०, तेथी मूक्ष्म संना उ० पर्य० अनं० छे, तेथी यथाख्यातना अजघन्य अनुत्कृष्ट पर्यवो अनंतगुणा छ । सोलमुं योगद्वार कहे छे:पहेला ४ संयतो सयोगी छे अने यथाख्यात सं०, सयोगी अने अयोगी पण छे. सत्तरमुं उपयोगद्वार कहे छे:सामा०, छेदोप०, परिहा. अने यथा० ए ४ संयतो साकारोपयोगी अने अनाकारोपयोगी छे, सूक्ष्मसं० संयत, साकारोपयोगी छे ।। अढारमुं कषायद्वार कहे छे:-पहेला ४ संयतो सकषायी अने यथा० संयत, अकषायी छे. पहेला ३ संयतोमा संज्वलननो क्रोध, मान, माया, लोभ, ए ४ होय. सूक्ष्मसं० संयतमां संज्वलननो लोभ होय
१ परिहार विशुद्धक संयत, विशिष्ट [ खास अमुक ] तप-क्रियावडे विशुद्ध भाववालो होवाथी तेना ज. पर्यवो पण सामा० छेदो०ना ज. पर्यवोथी अनतगुण अधिक हे अने परिहाविशुद्ध संना उ० पर्यवोथी सामा०ने छेदोप० संयतोना उ. पर्यवो अनंतगुण अधिक कझा तेनुकारण * के परिहा.वालो छठे के सातमे गुणठाणे होय अने सामा०ने छेदो० संयत, नवमागुणठाणा सुधी होय माटे अनंतगुण अधिक छे.