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सिद्धांतरहस्य ॥४५॥
सा० ने उ० अढार सा०, एम अनुक्रमे एकेके सागर वधारतां नवमाग्रैवेयकमा ज० त्रीश सा० ने उ० एकत्रीश सागरनी. चार अनुत्तर वि०मां ज० एकत्रीस सा० ने उ० तेंत्रीस सा० अने सर्वार्थसिद्धमां ज० ने उ० तंत्रीससागरोपमनी. समोहया असमोहया वे मरण होय. चवण ते १-२ देव्ना देव, चवीने पृथवी, पाणी, वनस्पति, तिर्यंच पंचें० अने मनुष्य ए पांच दंडकमां उपजे श्रीजाथी आठमा देख्ना देव, तिर्यच पंच० ने मनुष्य ए बे दंडकमां उपजे नवमांथी सर्वार्थ सिद्ध विना देव, एक मनुष्यना दंडकमां उपजे गति-आगति- पहेलाथी आठमा देवना देव, मनुष्य अने तिर्यच ए वे गतिमां जाय अने एमां आपे पण बे गतिना. नवमांथी सर्वार्थसिद्ध विना देव, एक मनुष्यनी गतिमां जाय अने एमां आवे पण मनुष्यगतिमांथी. प्राण दश होय. इति चोवी शमो वैमानिकनो दंडक समाप्त.
हवे सिद्धनो द्वार कहे छे:- सिद्धने शरीर नथी. अवगाहना सिद्धनी ज० एक हाथ ने आठ अंगुलनी म०, चार हाथने सोळ अंगुलनी अने उ० त्रणसो तंत्रीस धनुष्य ने बत्रीस अंगुलनी. संघयण नथी, संठाण नथी. कषाय नथी. संज्ञा नथी. लेश्या नथी. इंद्रिय नथी. समुद्घात नथी. संज्ञी - असंज्ञीपणु नथी. वेद नथी. पर्याप्त
१ बार देवलोकथी उपर उत्तरवैक्रेय करवानुं नथी. ९मां दे०थी ९मां मै०मां ज० उ० १८-१९-१९-२०-२०-२१-२१-२२-२२-२३ २३-२४-२४-२५-२५-२६-२६-२७-२७-२८- २८-२९-२९-३०-३०-३१. २ अमूर्त जीवना प्रदेशना घननी अवगाहना पूर्व (चरिम) शरीरना
विभाग न्यून होय.
दंडक
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