SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धांतरहस्य ॥१५९॥ दर्शननो उपयोग ते अशुद्ध परिणतिए बहिरात्मा, अन शुद्ध परिणतिए अंतरात्मा. केवलदर्शननो उपयोग ते परमात्मा. त्रण अज्ञाननो उपयोग ते बहिरात्मा. ५ ज्ञानात्मा अने ६ दर्शन आत्मानुं स्वरुपः-उपयोगात्मा पापद्व्य प्रमाणे जाणवू.७ चारित्रात्मामा सामायिकादि चार चारित्र अने विरतिपणुं. ए पांच क्षायोपशमिक भावे विचार ॥१५९॥ | अंतरात्मा, यथाख्यात चा०, छद्मस्थ-आश्रयी अंतरात्मा अने केवली-आश्रयी परमात्मा.८ वीर्यात्मामां | | बालवीर्यनी परिणतिए (मिथ्यात्वी) बहिरात्मा अने समकीती अंतरात्मा. बालपंडितवीर्य, देश विरतिनी परिणतिए अंतरात्मा. पंडितवीर्य, ते छदमस्थ-आश्रयी अंतरात्मा अने केवली आश्रयी परमात्मा. ए ८ आत्मानुं लेश मात्र स्वरुप कयुषद्रव्यन स्वरुप, विस्ताररुचि जीवोए सातनय, चारनिक्षेप, षट्उपक्रम, नव अनुगम, ओघ निष्पन्न, नाम निष्पन्न अने सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप नियुक्ति सहित अने स्यावाद शैलीए अनंत नयात्मक सिद्धांतथी जाणवा प्रयास करीए तोपण सर्वथा षद्रव्यना स्वरुपर्नु पार न पामीए. तथापि षद्रव्यमां असं. ख्यात प्रदेशी, अनंत केवलज्ञान-केवलदर्शन-चारित्र अने वीर्यरुप अनंत चतुष्टयमय, आत्मानी शुद्ध सत्तानी श्रद्धा (प्रतीति) करीने विचार के हुं योगत्रय रहित छु, राग-द्वेष रहित छु, सत्ताए सचिदानंद स्वरुप छु, | पूर्णानंदमयी छु. हुं सिद्ध समान छु. तेम सर्व जीवो सिद्ध समान छे. एम जे जीव माने-अनुभवे ते जीव शुद्ध || सम्यक्दृष्टि जाणवो अने जे शुद्ध आत्मिक शुद्ध सत्ताने न माने तेनी सघली क्रिया, साध्यशून्य (निष्फल) ३ भास्माना ८ मेद अशुब म्यास्तिकनयथी छे.
SR No.023509
Book TitleSiddhant Rahasya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Upadhyay
PublisherGangji Virji Shah
Publication Year1937
Total Pages248
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy