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सिद्धांतरहस्य ॥१८२॥
नियंठा विचार ॥१८२॥
उत्सापणी कालमां तथा नोअव. नोउत्स. कालमां पुलाकनी जेम जाणवू निग्रंथ अने लातक, जन्म अने सद्भाव आश्रयी पुलाकनी जेम जाणवू, नो अव० नो उत्सर्पि० मा जन्म अने सदभाव आश्रयी सर्वे निग्रंथो होय. संहरण आश्रयी पुलाक सिवाय शेष निग्रंथो, सर्व कालमां होय. तेरमुंगति-स्थितिद्वार-पहेला चार निग्रंथोनी गति, जघन्यथी सौधर्म देवलोकनी होय. उत्कृष्टथी पुलाकनी आठमा देवलोक सुधी होय. बकुश अने प्रतिसेवना कुछ नी बारमा देवलोक सुधी अने कषाय कु. नी अनुत्तर विमान सुधी होय. निग्रंथनी अजघन्य अने अनुत्कृष्ट अनुत्तर विमाननी होय. स्नातकनी सिद्धिगति होय. पहेला त्रण निग्रंथो, अविराधक भावे १ इंद्रनी, |२ सामानिकनी, ३ त्रायत्रिंशकनी अने ४ लोकपालनी ए चार पदवी पामे. कषाय कु०, अहमिंद्र सहित पांच | पदवी पामे. निग्रंथ, अहभिंद्रनीज पदवी पामे. विराधकपणे पांचे निग्रंथो, ज. भुवनपतिमां अने उ० सौधर्म | देवलोकमां जाय. अविराधकनी स्थिति पहेला चार निग्रंथोनी ज० पृथक्त्व पल्योपमनी अने उ० पुलाकनी १८ | सागरोपमनी, बकुश अने प्रतिसेवना कु. नी २२ सागरनी, कषाय कु. नी३३ सा. नी. निर्ग्रथनी अजधन्यअनुत्कृष्ट ३३ सागरनी. चौदमुं संयम-(स्थान) द्वार-पहेला चार निग्रंथोना अनंत पर्यवयुक्त असंख्याता
२ विराधक भावे निग्रंथोनी स्थिति पण भवनपति भने सौधर्म देवलोक प्रमाणे जाणवी
३ चारित्र मोहनीयना क्षयोपशमनी विचित्रताथी होय छे. जेटला कषायना रसबंधना अध्यवसाय स्थानको तेटलाज संयमना स्थानको छे; | तेनो क्षयोपशम के क्षय थवाथी चारित्रती प्राप्ति थाय छे.
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