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षद्रव्य विचार ॥१६०॥
जाणवी. जो जीव, सत्ताए सिद्ध समान छे तो सत्तामां केवलज्ञान पण छे.जो सत्तामां केवलज्ञान न होय तो, सिद्धांत
केवलज्ञानावरणीय प्रकृति कोर्नु आवरण करशे ? वळी नंदी सूत्रमा 'अक्षर'नो अनंतमो भाग (सर्व जीवनो) रहस्य
नदा उघाडो (निरावरण) छे, आ वस्तु केम घटी शकशे? वली जो केवलज्ञान मत्तामा न होय तो मत्यादि ४ ॥१६॥
ज्ञान पण संभवे नहिं, कारण ? ते चारे ज्ञान, केवल ज्ञानना अंशो (पेटा विभागरुप) क्षायोपशमिक भावे छे. माटे मूलरूप केवलज्ञानज सत्तामां न होय तो शाखारुप मत्यादिज्ञान पण न होइ शके. "मूलंनास्तिकुतः शाखा?" अरे संसारी भव्य जीवने तो केवलज्ञान, सत्तामा छ, पण अभव्य जीवने पण सत्तामा छे, पण तेनो पलटयानो स्वभाव न होषाथी-निवड आवरण होवाथी अने शुद्ध जमकितनी प्राप्ति कोइकाले न थयाधी तेने
केवल प्रगटतुं नथी, भव्यो पण बघाय केवलज्ञान प्रगट करीने मोक्षे जशे नहि पण योग्यता होवाथी भब्ध केहबोल छे सर्व जीवोने 'झान' सत्ताप समान छे. पण आवरणनी तरमता अने क्षयोपशमनी विचित्रताथी ओछुविधतुं ज्ञान धाय छे. माटे शुद्ध श्रद्धा वडे ज्ञान-क्रियाना बलथी केवलज्ञान प्रगटाववा प्रयास करवो. शुद्ध श्रद्धान विना द्रव्य क्रिया ते पुण्य फलने आपनार छे, तेथी जीवन कार्य थाय नहिं. माटे वृत्त्यादि सह आचारंगादि सूत्रो अने तत्वार्थादि ग्रंथोनु अवलोकन करी केवलज्ञानने प्रगट करवा ज्ञान पूर्वक क्रिया रुचिवाळा थर्बु. अनेक जीवो सिद्ध थया, थाय छे अने थशे ते सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन अने सम्यक् चारित्रना प्रभावधी माटे जे जीवने | कल्याण करवू छे ते तो पोताना हाथमा छे. इति पद्रव्य विचार समाप्त.