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सिद्धांत
नियंठा विचार ॥१८॥
॥१८४॥
तेथी पुलाकना उ० पर्यवो, अनंतगुणा. तेथी बकुश अने प्रति से• ना ज० पर्यवो, अनंतगुणा अने परस्पर तुल्य. तेथी बकुशना उ० पर्यवो अनंतगुणा. तेथी प्रति से ना उ० पर्यवो अनंतगुणा तेथी कषाय कु. ना उ० पर्यवो अनंतगुणा. तेथी निग्रंथ अने स्नातकना अजम्ने अनुत्कृष्ट पर्यवो अनंतगुणा अने परस्पर तुल्य छे. सोलमुं योगद्वार-पहेला पांच निग्रथो, सयोगी (त्रणे योगवाला) होय. स्नातक, सयोगी होय तो त्रणे योगवालो होय | अने अयोगी पण होय. सत्तरमुं उपयोगद्वार-छए निग्रंथो, साकारोपयोगी अने अनाकारोपयोगी पण होय. अढारमुं कषायद्वार-पहेला त्रण निग्रंथोने संज्वलनी चोकडी होय कषाय कु. ने संज्व०नी चोकडी पण होय अथवा क्रोध सिवाय त्रण कषाय, मान सिवाय बे कषाय अने माया सिवाय एक संज्व० नो लोभ पण होय. निग्रंथ उपशांत कषायी अथवा क्षीणकषायी होय. स्नातक, क्षीणकषायीज होय. उगणीशमु लेश्याद्वार-पहेला त्रण निग्रंथो, प्रशस्त त्रण लेश्यावाला होय. कषाय कु०, छए लेश्यावाला होय. निग्रंथ, शुक्ल लेझ्यावालो होय..
२ स्नातकने भाव मन होतुं नथी, परंतु ज्यारे अनुत्तर विमानना देवो केवलीने प्रश्न पूछे छे त्यारे काययोग बड़े मनोवर्गणाना पुद्गलोने ग्रहण करी द्रव्य मनपणे परिणमावीने उत्तर आपे छे; तेथी स्नातक त्रग योगवालो होय. ३ चार कषाय, ५ कषायकु० ने अप्रशस्त ३ लेश्या होय छे. कारण ? लेश्याना अध्यवसाय स्थानो असंख्पाता छे अने लेश्या, रमबंधनुं कारण छे; माटे जे पी लेक्षा तेपो रस होय. जेम कोइ लब्धिमान् साधु, संघादिकना प्रयोजने दुष्ट नृपादिकने शिक्षा करवा ज्यारे लब्धि फोरवे त्यारे संघादि उपर प्रशस्तराग होवाथी प्रथम प्रशस्त लेश्या होय के; पछी दुष्ट नृपादि उपर कलुर भाव आववाथी-कषायनी प्रबलताथी-अप्रशस्त-लेश्या परिगमे छे. परंतु तत्काल अप्रशस्त लेश्याथी ते निवृत्त थइ शुभ लेश्यामा परिणमे छे.