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सिद्धांत
रहस्य ॥१३७॥
होय. परि०, सूक्ष्म० ने यथाख्यात ए ३ संगतो अप्रतिसेवी होय || सातमुं ज्ञानद्वार कहे छे: -- आगला ४ संयतोमां ज्ञान, बे त्रण ने चार होय अने यथाख्यात सं०मां पांच ज्ञाननी भजना छे अज्ञान नथी. सामायिक, छेदोप०, सूक्ष्मसं०ने यथाख्यातसंयतो, ज० आठ प्रवचन माता अने उ०१४ पूर्व भणे, परिहार विशद्धि संयत, ज० नवमा पूर्वनी त्रीजी आचारवस्तु अने उ० देशेउणा १० पूर्व भंगे। आठमुं तीर्थद्वार कहे छे:- तीर्थमां पांचे संयतो होय अने अतीर्थमां सामा०, सूक्ष्म सं०ने यथाख्यात सं०ए ३ होय अने तीर्थंकर ने प्रत्येकबुद्धमां पण ए ३ होय ॥ नव लिंगद्वार कहे छे:- द्रव्यलिंग आश्रयी - स्वलिंगमां पांचे संवतो होय अने अन्यलिंग ने गृहस्थमां परिहार विशुद्धि सं०वर्जीने शेष ४ संयतो होय. भावलिंग आश्रयी - स्वलिंगमां पांचे संयतो होय अने अन्यलिंग के गृहस्थलिंगमां एक पण संयत न होय ॥ दशमुं शरीर द्वार कहे छे:- सामा० ने छेदोप० ए बे संयत ने त्रण, चार के पाँच शरीर होय अने पाळला ३ संयतोने ३ शरीर-औदारिक तैजसने कार्मण होय. ॥ इग्यारमुं क्षेत्रद्वार कहे छे:
२ परिहार विशुद्धिक, एटलं ज्ञान [देशेडणा १० पूर्व ] भण्या पछी थइ के छे पछी तेनने भगवानुं होतुं नथी. अर्थात ए भण्या पछीज परिहा० चारित्रने प्राप्त करी शके. सूक्ष्म सं० अने यथाख्या० संयत माटे पण एमज जाणवुं कारण? अल्पकालमा श्रेणिगत थवाथी त्यां भणवानुं नथी. ३ अन्यलिंग अने गृहस्थलिंगमां छेदोपस्थापनीय संयत केम होइ शके ? ए माटे एन समजाय के के कोई लब्धवर मुनि कोइक जैन शासनना शुभ कार्य माटे अन्य लिंग के गृहस्थ लिंग ने धारण करे. जेम श्रेणिकचरित्रमां सुनिए ओधो वगेरे बाळीने अन्य लिंग धारण करेलुं परिहारवि ० संo लब्धि फोरवता नथी. ४ पांच शरीर युगवत् [ साथ ] शक्तिरूप होय, आविर्भावे न होय.
संयत
विचार
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