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१०४ - छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, ३, ४, ३१. समयम्मि पत्तुक्कस्ससंकिलसपडिसहफलत्तादो। किमढें तस्स तत्थ पडिसेहो कीरदे ? ओकड्डिदे वि दव्वविणासाभावादो । हेट्ठा पुण सव्वत्थ समयाविरोहेण उक्कस्ससंकिलेसो चेव, अण्णहा संकिलेसावाससुत्तस्स विहलत्तप्पसंगादो।
चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदों ॥ ३१ ॥
किमटुं चरिम-दुचरिमसमएसु जोगं णीदों ? उक्कस्सजोगेण बहुदव्वसंगहढें । जदि एवं तो दोहि समएहि विणा उक्कस्सजोगेण णिरंतरं बहुकालं किण्ण परिणमाविदो ? ण एस दोसो, णिरंतरं तत्थ तियादिसमयपरिणामाभावादो । णारद्धव्वमिदं सुत्तं, जोगावासेण परूविद
मन्तिम समयमें उत्कृष्ट संक्लेशका प्रसंग प्राप्त था उसका प्रतिषेध करना इस सूत्रका प्रयोजन है।
शंका-उत्कृष्ट संक्लेशका नरकभवके अन्तिम समयमें प्रतिषेध किसलिये किया जाता है?
समाधान- क्योंकि, वहां अपकर्षणके होनेपर भी द्रव्यका विनाश नहीं होता।
चरम समयके पहले तो सर्वत्र यथासमय उत्कृष्ट संक्लेश ही होता है, क्योंकि, ऐसा नहीं माननेपर संक्लेशावाससूत्रके निष्फल होनेका प्रसंग प्राप्त होता है ।
चरम और द्विचरम सयममें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ ॥ ३१ ॥ शंका-चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको किसलिये प्राप्त कराया ?
समाधान-उत्कृष्ट योगसे बहुत द्रव्यका संग्रह करानेके लिये उक्त समयोंमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त कराया है।
शंका-यदि ऐसा है तो दो समयोंके सिवा निरन्तर बहुत काल तक उत्कृष्ट योगसे क्यों नहीं परिणमाया ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, निरन्तर उत्कृष्ट योगमें तीन आदि लमय तक परिणमन करते रहना सम्भव नहीं है।
शंका-इस सूत्रकी रचना नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, योगावाससूत्रसे इस
१ नोगुक्कोसं चरिम-दुचरिमे समए य चरिमसमयम्मि। संपुण्णगुणियकम्मो पगयं तेणेह सामित्तं ॥ क.प्र.२-७८.
२ प्रतिषु णीलो' इति पाठः।
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