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२८२] छक्खंडागमे यणाखंड
[४, २, १, १०. चरिमसमओ ति । जेणेव सम्मत्त संजमाभिमुहभिच्छाइट्ठी असंखेज्जगुणाए सेडीए पादरेइंदिएसु पुवकोडाउअमणुसेसु दसवाससहस्सियदेवेसु च संचिददव्वादो असंखेज्जगुणं दव्वं णिज्जरई' तेण इमं लाहं दट्ठण संजमं पडिवज्जाविदो । एत्थ असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मणिज्जरा होदि त्ति कधं णव्वदे?
सम्मत्तुप्पत्ती वि य सावय-रिदे अणंतकम्मले । दंसणमोहक्खवए कसाय उवसामए य उवसंते ॥ १६ ॥ खवर य खीणमोहे जिणे य णियमाँ भवे असंखेज्जा ।
तविबरीदो काले। संखज्जगुणाए सेडीएँ ॥ १७ ।। इदि गाहासुत्तादो णव्वदे। दोहि वि करणेहि णिज्जरिददव्वं बादरेइंदियादिसु संचिददव्यादो असखज्जगुणीमदि कधं णव्वदे ? संजमं पडिवज्जिय त्ति अणिदण
प्रकार चूंकि सम्यक्त्व और संयमके अभिमुख हुआ मिथ्यादृष्टि जीव बादर एकेन्द्रियों, पूर्वकोटि आयुवाले मनुप्यों और दस हजार वर्ष की आयुषाले देवोंमें संचित किये गये द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यकी निर्जरा करता है । अत एव इस लाभको देख कर संयमको प्राप्त कराया है।
__ शंका-यहां असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे कर्मनिर्जरा होती है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? .
समाधान- सम्यक्त्वोत्पत्ति अर्थात् प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, श्रावक (देशविरत), विरत ( महाव्रती), अनन्तकोश अर्थात् अनन्तानुसन्धीका विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोहका क्षय करनेवाला, चारित्रमोहका उपशम करनेवाला, उपशान्तमोह, चारित्रमोहका क्षय करनेवाला, क्षीणमोह और जिन, इनके नियमसे उत्तरोत्तर भसंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे कर्मनिर्जरा होती है। किन्तु निर्जराका काल उसले
संख्यातगुणित श्रेणि रूपसे है, अर्थात् उक्त निर्जराकाल जितना जिन भगवानके है उससे संख्यातगुणा क्षीणमोहके है, उससे संख्यातगुणा चारित्रमोहलपकके है इत्यादि ॥ १६-१७ ॥ इन गाथासूत्रोले जाना जाता है कि यहां असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे कर्मनिर्जरा होती है।
शंका-दोनों (अपूर्व व अनिवृत्ति) ही करणों द्वारा मिर्जराको प्राप्त हुभा द्रव्य बादर एकेन्द्रियादिकोंमें संचित हुए द्रव्यसे असंख्यातगुणा है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? -...........
अ-आ-काप्रतिषु 'णिज्मरे ' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'पडिवजारे वि' इति पारः । ३ अ आकाप्रतिषु 'णियमो' इति पाठः । ४ अपध. अ. प. ३९७. गो. जी. ६६-६७, सम्यग्दृष्टि-श्रावक विरतानन्तबियोजक-दर्शनमोरक्षषकोपशमकोपशान्त-मोहक्षपक क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः । त. सू. ९-४५. सम्मत्तप्पा-सावय-विरए संयोमणा विणासे य । दसणमोहक्खवगे कसाबबसामगुवसंते ॥ खबगेब खीणमोह जिणे य गि असंबगुणसेडी। उदओ तग्विवरीभो कालो संखेन्जगुणवेरी॥ काति,८.९,
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