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४, २, १. १२२. 1 वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामिपं [३४३ परिहाणी लब्भदि तो सयलम्मि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागम्मि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवहिदाए परिहाणिरूवाणि लभंति । एदाणि उवरिमविरलणाए सोहिय सेसेण सगलपक्खेवे भागे हिदे हेट्ठिमतदणंतरगोबुच्छा होदि । एसो एत्थ विगलपक्खेवो । एदेण पमाणेण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसगलपक्खेवेहिंतो अवणिय पुध ठविदे उवरिमविरलणमेत्ता विगलपक्खेवा होति । पुणो ते सगलपखेरे कस्पामा । तं जहा - किंचूणअंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेतविगलपक्खेवाणं जाद एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो जहण्णाउअबंधगद्धाए गुणिदसेडीए असंखेज्जदिमागमेत्तविंगलपक्खवेसु किं लामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता सगलपक्खेवा लभंति।
___ संपहि एदिस्से दीवसिहातदणंतरगोवुच्छाए जोगाणुपमं कस्सामो। तं जहा- एगसगलपक्खेवस्स दीवसिहादवागमणहे दुभूदअंगुलस्म असंखेज्जदिभागमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि लभंति तो अप्पिदगोवुच्छाए सयलपक्खेवाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि लब्भंति । पुणो एत्तियाणं जोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण परिणमिय बंधिय दीवसिहाए पढमसमयट्टिददव्वं [धरेदण हिदो]
प्राप्त होती है तो सम्पूर्ण अंगुलके असंख्यातवें भागमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाके अपवर्तित करनेपर परिहीन रूपोंका प्रमाण प्राप्त होता है । इनको उपरिम विरलनमेंसे कम करके शेषका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर अधस्तन तदनन्तर गोपुच्छा होती है। यह यहां विकल प्रक्षेप है। इस प्रमाणसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेपों में से कम करके पृथक् स्थापित करनेपर उपरिम विरलन मात्र विकल प्रक्षेप होते हैं। उनके सकल प्रक्षेप करते हैं। वह इस प्रकारसेकुछ कम अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंका यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो जघन्य आयुबन्धककालसे गुणित श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंमें कितने सकल प्रक्षेप प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाके अपवर्तित करनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं।
अब दीपशिखाकी तदनन्तर इस गोपुच्छाके योगस्थानोंका अनुगम करते हैं। वह इस प्रकार है-एक सकल प्रक्षेपकी दीपशिखाके द्रव्यके लाने कारणभूत अंगुलके असंख्यातें भाग मात्र योगस्थान यदि प्राप्त होते हैं तो विवक्षित गोपुच्छा सम्बन्धी सकल प्रक्षेपोंके कितने योगस्थान प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थान प्राप्त होते हैं। , पुनः इतने योगस्थानोंके अन्तिम योगस्थानसे परिणत होकर आयुको बांधकर दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित द्रव्यको धरकर स्थित हुआ जीव, तथा जघन्य
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