Book Title: Shatkhandagama Pustak 10
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, २, ४, १८१.) वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४१५ गच्छंति जाव चरिमवग्गणेत्ति । णवरि गुणहाणिं पडि विसेसो दुगुणहीणो होदूण गच्छदि त्ति घेत्तव्वं, गुणहाणिअद्धाणस्स अवट्टिदत्तादो। - परंपरोवणिधा उच्चदे । तं जहा- पढमवग्गणाए जीवपदेसेहितो तदो सेडीए असंखेज्जदिभाग गंतूण ट्ठिदवग्गणाए जीवपदेसा दुगणहीणा । एवमवट्ठिदमद्धाणं गंतूण अणंतराणंतरं दुगुणहीणा होदण गच्छंति जाव चरिमवग्गणेत्ति । एत्थ तिणि अणियोगदाराणि परूवणा पमाणमप्पाबहुगं चेदि । तत्थ परूवणं वुच्चदे । तं जहा - अत्थि एगजीवपदेसगुणहाणिहाणंतरं गाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि च । परूवणा गदा ।
___एगजीवपदेसगुणहाणिहाणतरं सेडीए असंखेज्जदिभाग।। णाणाजीवपदेसगुणहाणिद्वाणंतरसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । पमाणं गदं ।
___ सव्वत्थोवाओ णाणाजीवपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरसलागाओ। एगजीवपदेसगुहाणिदीहत्तमसंखेज्जगुणं । सेडिपरूवणा गदा ।
__ अवहारो वुच्चदे- पढमाए वग्गणाए जीवपदेसपमाणेण सव्वजीवपदेसा केवचिरेण
गुणहानि के प्रति विशेष दुगुणा हीन होकर जाता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि, गुणहानिअध्वान अवस्थित है।
परम्परोपनिधाका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है - प्रथम वर्गणाके जीव. प्रदेशोंकी अपेक्षा उससे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र आगे जाकर स्थित वर्गणामें जीवप्रदेश दुगुणे हीन हैं। इस प्रकार अवस्थित (श्रेणिका असंख्यातवां भाग) अध्वान जाकर अनन्तर अनन्तर वे दुगुणे हीन होकर अन्तिम वर्गणा तक जाते हैं । यहां तीन अनुयोगद्वार हैं -प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । उनमें प्ररूपणा कही जाती है। वह इस प्रकार है- एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर और नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर हैं। प्ररूपणा समाप्त हुई।
एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर श्रेणिके असंख्यातवें भाग है। नानाजीवप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरशलाकायें पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र हैं। प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई।
नानाजीवप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरशलाकायें सबसे स्तोक हैं । उनसे एकप्रदेशगुणहानिदीर्घता असंख्यातगुणी है । श्रेणिप्ररूपणा समाप्त हुई।
अवहारका कथन करते हैं-प्रथम वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशोंके प्रमाणसे
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मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-तातिषु ' असंखेज्जदिमागे' इति पाठः। २ सेटिअसंखियमागं गंतु गंतुं हवंति दुराणाई । पल्लासंखियभागो गाणायणहाणिगणाणि ॥ क. प्र. १, १..
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