Book Title: Shatkhandagama Pustak 10
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 486
________________ ४, २, ४, १८६ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [ ४६५ गच्छसंकलणार आणिदाए एत्तियं होदि ० १६ ८ ४ | ९९|| पुणो एत्थ अहियाविभागपडिच्छेदाणमवणणं' वुच्चदे | १६ २ तं जहा - जहण्णवग्गगुणएगवग्गणविसेसादि उत्तररूवूर्ण फेद्दद्यवग्गणसला गगच्छसंकलणाँ पढमफद्दयम्मि अवणिज्जमाणजोगाविभागपडिच्छेदा होंति । तेसिं पमाणमेदं | ८ | १६ | ३ | ४ बिदियफद्दयम्मि ऊणपमाणाणयणं वुच्चदे । तं जहा एगफद्दयवग्गणवग्गमेत्तवग्गणैविसेसेहि दोजहण्णवग्गे गुणिय पुध द्वविदे एत्तियं होदि '। पुणो २ सलाग पुणो एगवग्गणविसेसादिउत्तररूवूणफद्दयवग्गण सलागगच्छसंकलणमेत्त- ८/२/१६/४४ || विसेसेहि दोजहण्णवग्गे गुणिय पुध वेदव्वं । तस्स पमाणमेदं पुव्विल्लरासिस्स पस्से एदं पि वेदव्वं । बियिफद्दयमि अवणिज्जमाणअविभागपडिच्छेदा होंति । सम्बन्धी स्पर्धकशलाकाओंकी गच्छसंकलनाके लानेपर वह इतनी होती है ( मूलमें देखिये ) । अब यहां अधिक अविभागप्रतिच्छेदोंके अपनयनका विधान कहा जाता है । वह इस प्रकार है - जघन्य वर्गसे गुणित एक वर्गणाविशेषादि-उत्तर रूप कम स्पर्धक वर्गणाशलाका स्वरूप गच्छके संकलन प्रमाण प्रथम स्पर्धकमें कम किये जानेवाले योगाविभागप्रतिच्छेद होते हैं । उनका प्रमाण यह है ( मूल में देखिये) । अब द्वितीय स्पर्धक में कम किये जानेवाले योगाविभागप्रतिच्छेदों के प्रमाणके लाने का विधान कहा जाता है । यथा - एक स्पर्धककी वर्गणाशलाकाओंके वर्ग मात्र वर्गणाविशेषोंसे दो जघन्य वर्गीको गुणित करके पृथक् स्थापित करनेपर इतना होता है ( मूलमें देखिये ) । अब एक वर्गणाविशेषादि उत्तर एक कम स्पर्धककी वर्गणाशलाका रूप गच्छ की संकलनाका जितना प्रमाण हो उतने मात्र विशेषोंसे दो जघन्य वर्गीको गुणित करके पृथकू स्थापित करना चाहिये । उसका प्रमाण यह है ( मूल में देखिये ) । पूर्व राशिके पास में इसको भी स्थापित करना चाहिये । द्वितीय स्पर्धकमें कम किये जानेवाले अविभांगप्रतिच्छेद होते हैं । Jain Education International ||२||२|| 3 , १६ ३ ४ ताप्रतौ |||||| ३ ४ १ प्रतिषु ' माणयणं ' इति पाठः । २ अ-आ-काप्रतिषु ' उत्तरूवूण' इति पाठः । ३ ताप्रतौ ' संकलण ' इति पाठः। ४ जघन्यवर्गगुणैक विशेषाद्युत्तररूपो ने कस्पर्धक वर्गणाशला कगच्छ संकलनं प्रथम स्पर्धकऋणं भवति । गो. क. ( जी. प्र. ) २२९. ५ अप्रतौ | ८ | १६ आ-काप्रत्योः | १६ | ३ | ४४ | एवंविधात्र संदृष्टिरस्ति । ६ अप्रतौ ' सलागमेत्तवग्गण ' इति पाठः । ७ ताप्रती | ८ |२ २ | विधात्र संदृष्टिः । एवं - ८ इदानीं द्वितीय स्पर्धकऋणमानीयते - जघन्यवर्गगुणितविशेषा- | १६ ३४ द्युत्तररूपोन स्पर्धक वर्गणाशला का गच्छसंकलनं······आनीय द्विगुणितं व त्रि ३ । ३ । २ पुनः जघन्यवर्ग- मात्रविशेषः एक स्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गेण रूपोनस्पर्धकसंख्या ३ गच्छसंकलनेन ३ । १ द्विगुणेन च १२ गुणितः व वि ४ । ४ । १ । २ एतत्राशिवयं द्वितीय स्पर्धकऋणम् । गो. क. (जी. प्र.) २२९. ० o २ छ. वे. ५९. 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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