Book Title: Shatkhandagama Pustak 10
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 522
________________ ४, २, ४, २०५ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [ ५०१ जद्दण्णेण एगसमयमुक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो, तत्थ असंखेज्जभागवडि मोत्तूर्ण अण्णवड्डीणमभावादो । संपहि जवमज्झादो उवरिमच दुसमयपाओग्गजोगट्ठाणेसु परिणममाणस्स असंखेज्जभागवड्डि-संखेज्जभागवडीओ चेव होंति । कधमेदं णव्वदे ? सव्वजीवसमासाणं जहण्णपरिणाम जोगट्ठाण पहुडि जाव अप्पप्पणो उक्कस्सपरिणामजोगट्ठाणेत्ति एदाणि जोगट्ठाणाणि अस्सिदूण उवरि भण्णमाणअप्पा बहुग सुत्तम्मि जवमज्झादो हेडिम उवरिमच दुसमइयजोगट्ठाणाणि सरिसाणित्ति निद्दित्तादो | जोगट्ठाणे च हेट्ठिमसव्वाणादो सादिरेयमद्धाणं गंतूण उवरिमदुगुणवड्ढी उप्पज्जदि । एवं सदि हे वरिमपंचसमय दिजोगंट्ठाणाणि पढमगुणहाणि - मेत्ताणि जदि होंति तो उवरिमचदुसमइयाणं चरिमसमए दुगुणवड्ढी समुप्पज्जेज्ज' । ण च एवं, तहाविहोवदेसाभावादो । पुणो के रिसो उवदेसो त्ति पुच्छिदे उच्चदे - उवरिमचदुसमइयजोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणादो हेट्ठा असंखेज्जदिभागमेत्तमोसरिय दुगुणबड्डी होदि ति उवरिमचदुसमयपाओग्गेसु दो चेव वड्डीओ होंति त्ति एसो पवाइज्जतउवएसो । पवाइज्जत परिवर्तनका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि, वहां असंख्यात भागवृद्धिको छोड़कर दूसरी वृद्धियोंका अभाव है । अब यवमध्यसे ऊपर के चार समय योग्य योगस्थानोंमें परिणमन करनेवाले के असंख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागवृद्धि ही होती है । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान सब जीवसमासों के जघन्य परिणामयोगको आदि लेकर अपने अपने उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान तक इन योगस्थानोंका आश्रय करके आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्वसूत्रमें ' यवमध्यसे नीचे के और ऊपर के चार समय योग्य योगस्थान सदृश हैं' ऐसा निर्देश किया गया है । और योगस्थानमें अधस्तन समस्त अध्वान से सांधिक अध्वान जाकर उपरिम दुगुणवृद्धि उत्पन्न होती है । ऐसा होनेपर अधस्तन व उपरिम पंचसामयिक आदि योगस्थान यदि प्रथम गुणहानेि मात्र होते हैं तो ऊपर के चतुःसामयिक योगस्थानों के अन्तिम समय में दुगुणवृद्धि उत्पन्न हो सकती है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा उपदेश नहीं है । तो फिर कैसा उपदेश है, ऐसा पूछने पर कहते हैं कि ऊपरके चार समय योग्य योगस्थानोंमें अन्तिम योगस्थानसे नीचे असंख्यातवें भाग मात्र उतर कर दुगुणवृद्धि होती है । अत एव ऊपरके चार समय योग्य योगस्थानों में दो ही वृद्धियां होती हैं, ऐसा परम्पराप्राप्त उपदेश है । • १ मप्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु 'पंचसमया ओजोग' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु समप्पेज्ज' मप्रतौ समुप्पेज इति पाठः । ३ अ आ-काप्रतिषु ' पवाइज्जति ' इति पाठः । " For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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