Book Title: Shatkhandagama Pustak 10
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 527
________________ ५०६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, २१३. वरणीयस्स पदेसवंधट्ठाणं होदि । पुणो पक्खेवुत्तरजोगट्ठाणेण बिदिएण बंधमाणस्स बिदियं पदेसबंधट्ठाणं होदि । एदेण कमेण णेयव्वं जाव उक्कस्सजेोगट्ठाणेत्ति । एवं णीदे जोगट्ठाण मेत्ताणि चेव णाणावरणीयस्स पदेसबंधट्ठाणाणि लद्धाणि हवंति । तदो जाणि चेव जोगट्ठाणाणि ताणि चेव पदेसबंधट्ठाणाणि त्ति सिद्धं । एवमाउअवज्जाणं सव्वकम्माणं वत्तव्वं । णवरि आउअस्स उववाद-एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणि मोत्तूण सेसपरिणामजोगट्टाणमेत्ताणि चेव पदेसबंधट्ठाणाणि वत्तव्वाणि । 'णवीर पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि ' त्ति एदस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहाएत्थ ताव संदिट्ठीए जहण्णजोगदव्वमट्ठसहि सदमेतं होदि ११६८ । सव्वजोगट्ठाणाणं पमाणं संदिट्ठीए छत्तीसुत्तरतिसदमेतं होदि |३३६ । पुव्वमेत्तियमेत्ताणि पदेसबंधट्ठाणाणि णाणावरणीएण लद्धाणि । संपहि जहा एदेहिंतो विससाहियाणि णाणावरणीयपदेसबंधट्टाणाणि होति तहा परूवेमो-जहण्णजोगेण अट्ठ पयडीओ बंधमाणस्स णाणावरणभंगो । संदिट्ठीए एक्कवीस |२१ । । सत्तं बंधमाणस्स णाणावरणभंगो । चउवीस | २४ । संपहि एत्थ दोण्हं दव्वाण सरिसत्तं णत्थि । पुणो कधं होदि त्ति भणिदे जहण्णजोगट्ठाणादो सत्तभागब्भहियजोगट्ठाणेण शानावरणीयका एक प्रदेशबन्धस्थान होता है । पश्चात् प्रक्षेप अधिक द्वितीय योगस्थानसे बांधनेवालेके द्वितीय प्रदेशबन्धस्थान होता है। इस क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थान तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार ले जानेपर योगस्थानों के बराबर ही ज्ञानावरणीयके प्रदेशबन्धस्थान प्राप्त होते हैं । अत एव जितने ही योगस्थान हैं उतने ही प्रदेशबन्धस्थान हैं, यह सिद्ध है। इसी प्रकार आयुको छोड़कर सब कर्मोके कहना चाहिये। विशेषता यह है कि आयु कर्मके उपपाद और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानोंको छोड़कर शेष परिणामयोगस्थानोंके बराबर ही प्रदेशबन्धस्थानोंको कहना चाहिये। ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि ' इस सूत्रांशका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- यहां संदृष्टि में जघन्य योगके द्रव्यका प्रमाण एक सौ अड़सठ है (१६८)। सब योगस्थानोंका प्रमाण संदृष्टि में तीन सौ छत्तीस (३३६ ) है । पहिले ज्ञानावरणीयके द्वारा इतने मात्र प्रदेशन्धस्थान प्राप्त किये गये हैं। अब जिस प्रकार इनसे विशेष अधिक ज्ञानावरणीयके प्रदेशबन्धस्थान होते हैं उसे बतलाते हैं- जघन्य योगसे आठ प्रकृतियोंको बांधनेवालेकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । संदृष्टिमें इनके लिये इक्कीस (२१) अंक हैं। सात प्रकृतियोंको बांधनेवालेकी प्ररूपणा शानावरणके समान है। इसके लिये संदृष्टि में चौबीस (२४) अंक हैं । अब यहां दोनों द्रव्योंके सदृशता नहीं है । फिर कैसे सदृशता होती है, ऐसा पउनेपर कहते हैं कि जघन्य योगस्थानसे सातवें भाग अधिक योगस्थानके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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