________________
४, २, ४, १८९. ) . वेयणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे चूलिया [४८५ पक्खेवाविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जगुणहीणत्तुवलंभादो। तेणेदे पक्खेवाविभागपडिच्छेदाओ लोगमेत्तजीवपदेसेसु जहासरूवेण विहंजिदूण' पदंति त्ति घेत्तव्वं । एत्थ पक्खेवविहंजणं वुच्चदे
प्रक्षेपकसंक्षेपेण विभक्ते यद्धनं समुपलब्धं ।
प्रक्षेपास्तेन गुणाः प्रक्षेपसमानि खण्डानि ॥ २५ ॥ एदेण सुत्तेण पक्खेवविभागे आणिज्जमाणे एत्थ पढमफद्दयसव्ववग्गणजीवपदेसेसु पुध पुध एक्केण गुणिय, पुणो बिदियफद्दयवग्गणजीवपदेसु पुध पुध दोहि गुणिय, तदियफद्दयवग्गणजीवपदेसेसु पुध पुध तीहि गुणिय, एवमेगुत्तरादिकमेण गुणेदव्वं जाव चरिमफद्दयवग्गणीवपदेसा ति । ते सव्वे जीवपदेसे मेलाविय पुणो तेहि एगपक्खेवाविभागपडिच्छेदेसु ओट्टिदेसु जहण्णजोगट्ठाणजहण्णफद्दयाविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमेत्ता असंखेज्जलोगाविभागपडिच्छेदा लभंति । एदं लद्धं जहण्णजोगट्टाणवग्गणमेत्तमुवरुवरि पडिरासिय तत्थ पढमरासिं जहण्णफद्दयजहण्णवग्गणजीवपदेसेहि गुणिदं पडिरासिदजहण्णट्ठाणस्स
इसलिये ये प्रक्षेपअविभागप्रतिच्छेद यथास्वरूपसे लोक मात्र जीवप्रदेशों में विभक्त होकर गिरते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यहां प्रक्षेपविभाजनका कथन करते हैं
किसी एक राशिके विवक्षित राशि प्रमाण खण्ड करनेके लिये प्रक्षेपोंको जोड़ा कर उसका उक्त राशिमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उससे प्रक्षेपोंको गुणित करनेपर प्रक्षेपोंके समान खण्ड होते हैं ॥ २५ ॥
इस सूत्रसे प्रक्षेपविभागके लाते समय यहां प्रथम स्पर्धक सम्बन्धी सब वर्गणाओंके जीवप्रदेशको प्रथक प्रथक एकसे गुणित कर, फिर द्वितीय स्पा वर्गणाओंके जीवप्रदेशोंको पृथक् पृथक् दोसे गुणित करके, तृतीय स्पर्धक सम्बन्धी वर्गणाओंके जीवप्रदेशोंको पृथक् पृथक् तीनसे गुणित करके, इस प्रकार उत्तरोत्तर एक अधिक क्रमसे अन्तिम स्पर्धक सम्बन्धी वर्गणाओंके जीवप्रदेशों तक गुणित करना चाहिये । उन सब जीवप्रदेशोंको मिलाकर फिर उनके द्वारा एक प्रक्षेप सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंको अपवर्तित करनेपर जघन्य योगस्थान सम्बन्धी जघन्य स्पको अविभागप्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात लोक प्रमाण अविभागप्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं। जघन्य योगस्थानकी वर्गणा मात्र इस लब्धको आगे आगे प्रतिराशि करके उनमें प्रथम राशिको जघन्य स्पर्धक सम्बन्धी जघन्य वर्गणाके जीवप्रदेशोसे गुणित कर प्रतिराशिभूत जघन्य स्थानके जघन्य स्पर्धक सम्बन्धी जघन्य वर्गणाके
........................
... अ-आप्रत्योः । विहंजीविदूण' इति पाठः। २ ताप्रती 'पट्टति (वति ) ति' इति पाठः । ३ प.. पु. ६, पृ. १५८. ४ अप्रतौ 'चरिमवगणजीव' इति पाठः। ५ का-ताप्रत्योः 'सव्वजीवपदेसे' इति पाठः। ६ अप्रतौ 'मेसमुवरि पडिरासिय ' इति पाठः। ७ अ-आ-काप्रतिषु ' गुणिदपडिरासिद ' इति पास।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org