Book Title: Shatkhandagama Pustak 10
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 518
________________ १, २, ४, २०१] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया . [१९७ जोजेदव्वाणि । एवं समयपरूवणा समत्ता । (वढिपरूवणदाए अत्थि असंखेज्जभागवड्ढ-हाणी संखेज्जभागवड्ढ-हाणी' संखेज्जगुणवढि-हाणी असंखेज्जगुणवढि-हाणी ॥ वड्डिपरूवणा किमट्ठमागदा ? जोगट्ठाणेसु एत्तियाओ वड्डि-हाणीओ अत्थि एत्तियाओं पत्थि त्ति जाणावणट्ठमागदा । णेदं पओजणं, परंपरोवणिधादो चेव तदवगमादो ? ण, दुगुण-दुगुणजोगट्ठाणपदुप्पायणे तिस्से वावारादो। जोगट्ठाणवड्डि-हाणीणं पमाणपरूवणटुं तासिं कालपरूवणटुं च वडिपरूवणा आगदा त्ति सिद्धं ।। (संपहि एत्थ वड्डिपरूवणं कस्सामो । तं जहा- जहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहार विरलेदण जहण्णजोगट्ठाणं समखंडं कादर्ण दिण्णे स्वं पडि एगेगजोगपक्खेवो पावदि । पुणो तत्थ एगपक्खेवं घेतूण जहण्णजोगहाणं पडिरासिय पक्खित्ते असंखेज्जभागवड्डी होदि। श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं , यह जोड़ना चाहिये । इस प्रकार समयप्ररूपणा समाप्त हुई। वृद्धिप्ररूपणाके अनुसार योगस्थानोंमें असंख्यातभागवृद्धि-हानि, संख्यातभागवृद्धिहानि, संख्यातगुणवृद्धि-हानि और असंख्यातगुणवृद्धि-हानि; ये वृद्धियां व हानियां होती हैं । २०१॥ शंका- वृद्धिप्ररूपणा किसलिये प्राप्त हुई है ? . समाधान- योगस्थानों में इतनी वृद्धि-हानियां हैं और इतनी नहीं हैं, इस बातके शापनार्थ यह वृद्धिप्ररूपणा प्राप्त हुई है। __ शंका- यह कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि, परम्परोपनिधासे ही उनका ज्ञान हो जाता है ? ___ समाधान- नहीं, क्योंकि, परम्परोपनिधाका व्यापार दुगुणे दुगुणे योगस्थानोंका परिक्षान कराने में है। योगस्थानोंकी वृद्धि व हानिका प्रमाण बतलानेके लिये तथा उनके कालकी भी प्ररूपणा करने के लिये वृद्धिप्ररूपणा प्राप्त हुई है, यह सिद्ध है। - अब यहां वृद्धिकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- जघन्य योगस्थानके प्रक्षेपभागहारको विरलित कर जघन्य योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति एक एक योगप्रक्षेप प्राप्त होता है । अब उनमेंसे एक योगप्रक्षेपको ग्रहण करके जघन्य योगस्थानको प्रतिराशि कर उसमें मिला देनेपर असंख्यातभागवृद्धि होती है। द्वितीय 'संखेज्जभागवादि-हाणी' इत्येतावानयं पाठः प्रतिष्वनुपलभ्यमानो मप्रतितोऽत्र योजितः। छ. के. ६३. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org | Jain Education International

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