Book Title: Shatkhandagama Pustak 10
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 519
________________ ४९८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, २०१. विदियपक्खेवं बिदियजोगट्ठाणं पडिरासिय पक्खित्ते वि असंखेज्जभागवड्डी चेव होदि । एवं पक्खेवभागहारमुक्कस्ससंखेज्जमेत्तखंडाणि कादूण तत्थ एगखंडम्मि जत्तिया पक्खेवा अस्थि ते रूवूणा जाव पविसति ताव असंखेज्जभागवड्डी चेव होदि । एत्थ जहण्णजोगट्ठाणं पेक्खिदूण असंखेज्जभागवड्डी समत्ता । - पुणो संपुण्णेगखंडमेत्तपक्खेवेसु पविढेसु जहण्णजोगट्ठाणं पेक्खिदूण संखेज्जभागवड्डीए आदी जादा । पुणो बिदियखंडमेत्तपक्खेवेसु पविढेसु संखेज्जभागवड्डी चेव । एवं ताव संखेज्जभागवड्डी चेव गच्छदि जाव रूवूणविरलणमेत्तपक्खेवा पविट्ठा त्ति । एत्थ संखेज्जभागवड्डीए समत्ती जादा । तदो अण्णेगे' पक्खेवे पविढे जहण्णजोगट्ठाणं पेक्खिदूण संखेज्जगुणवड्डीए आदी जादा । एत्तो प्पहुडि उवरि संखेज्जगुणवड्डी ताव गच्छदि जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जच्छेदणयमेत्तगुणहाणीणं चरिमजोगट्टाणेति । तत्तो अणंतरउवरिमजोगट्ठाणं जहण्णजोगहाणं पेक्खिदूण जहण्णपरित्तासंखेज्जगुणं होदि । एत्थ असंखेज्जगुणवड्डीए आदी जादा । एत्तो प्पहुडि उवरिमसव्वजोगट्ठाणाणि जहण्णजोगट्ठाणं पेक्खिदूण असंखेज्जगुणाणि चेव, योगस्थानको प्रतिराशि करके उसमें द्वितीय प्रक्षेपको मिला देनेपर भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है । इस प्रकार प्रक्षेपभागहारके उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण खण्ड करके उनसे एक खण्डमें जितने प्रक्षेप हैं वे एक रूपसे हीन होकर जब तक प्रविष्ट होते हैं तब तक असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। यहां जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा करके असंख्यातभागवृद्धि समाप्त हो जाती है। पुनः सम्पूर्ण एक खण्ड प्रमाण प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होनेपर जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा करके संख्यातभागवृद्धिका आदि स्थान होता है । पश्चात् द्वितीय खण्ड मात्र प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होनेपर संख्यातभागवृद्धि ही रहती है। इस प्रकार रूप कम विरलन राशिके बराबर प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होने तक संख्यातभागवृद्धि ही चली जाती है। यहां संख्यातभागवृद्धिकी समाप्ति हो जाती है। तत्पश्चात् एक अन्य प्रक्षेपके प्रविष्ट होने पर जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा करके संख्यातगुणवृद्धिका आदि स्थान होता है। यहांसे लेकर आगे जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर गुणहानियोंके अन्तिम योगस्थान तक संख्यात. गुणवृद्धि ही चली जाती है । उससे आगेका अनन्तर योगस्थान जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा करके जघन्य परीतासंख्यातसे गुणित होता है। यहां असंख्यातगुणवृद्धिका आदे स्थान होता है। यहांसे लेकर आगे सब योगस्थान जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा करके असंख्यातगुणित ही हैं, क्योंकि, वहां दूसरी वृद्धियोंका अभाव है। इस ताप्रतौ ' अणेगे' इति पाठः। २ प्रतिषु 'जहण्णजोगट्ठाणाणं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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