Book Title: Shatkhandagama Pustak 10
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 509
________________ ४८८) छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १९३ ट्ठाणाणि समुप्पति । पुणो एवमपुव्वफद्दयमुप्पज्जदि । एव णेयव्वं जाव चरिमजोगट्ठाणेत्ति। |१|२|३J४/५/६/७८/९/१०/११ | १२ | १३ | १४|१५|| संपहि एवमेगादिएगुत्तरकमेण जहण्णफद्दयसलागाओ ठविय संकलणसुत्तकमेण मेलाविय | १२०। जहण्णट्ठाणजहण्णफद्दयसलागाणं पमाणं किण्ण परूविदं ? ण एस दोसो, एदासिं फद्दयसलागाणमसंखेज्जदिभागमेत्ताणं चेव जहण्णट्ठाणम्मि जहण्णफद्दयसलागाणमुवलंभादो। तं कधं णव्वदे ? पढमगुणहाणिअविभागपडिच्छेदेहिंतो चउत्थादिगुणहाणिअविभागपडिच्छेदाणं संखेज्जभागहीणादिकमेण गमणदंसणादो। तम्हा जहण्णट्ठाणम्मि तप्पाओग्गसेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तजहण्णफद्दयाणि अस्थि त्ति घेत्तव्वं । विसेसो पुण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि फद्दयाणि ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्यो सुगमो, पुव्वं परविदत्तादो । एवमणंतरोवणिधा समत्ता । परंपरोवणिधाए जहण्णजोगट्ठाणफद्दएहितो तदो सेडीए असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणवढिदा ॥ १९३ ॥ स्पर्धक उत्पन्न होता है । इस प्रकार आन्तिम योगस्थान तक ले जाना चाहिये । शंका- अब १+२+३+४+५+६+७+ ८+९+ १० ११ + १२+१३+१४ + १५ इस प्रकार एकको आदि लेकर एक अधिक क्रमसे जघन्य स्पर्धकशलाकाओंको स्थापित कर संकलनसूत्रके अनुसार मिलाकर ( १५+१६४ १५ = १२०) जघन्य स्थान सम्बन्धी जघन्य स्पर्धककी शलाकाओंका प्रमाण क्यों नहीं बतलाया ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इन स्पर्धकशलाकाओंके असंख्यात भाग मात्र ही जघन्य स्पर्धकशलाकायें जघन्य स्थानमें पायी जाती हैं । शंका-- वह कैसे जाना जाता है ? समाधान- चूंकि प्रथम गुणहानिके अविभागप्रतिच्छेदोंसे चतुर्थ आदि गुणहानियोंके अविभागप्रतिच्छेदोंका संख्यातभाग हीन आदिके क्रमसे गमन देखा जाता है, अत एव इसीसे उसका परिज्ञान हो जाता है। इसीलिये जघन्य स्थानमें तत्प्रायोग्य श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य स्पर्धक हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। विशेषका प्रमाण अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र स्पर्धक हैं ॥ १९२ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि, पहिले उसकी प्ररूपणा की जा चुकी है। इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई। परम्परोपनिधाके अनुसार जघन्य योगस्थान सम्बन्धी स्पर्धकोंकी अपेक्षा उससे श्रेणिके असंख्यातवें भाग स्थान जाकर वे दुगुणी दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते हैं ॥१९३॥ १ सेढिअसंखियभागं गंतुं गतुं हवंति दुगुणाई। पल्लासंखियभागो गाणागुणहाणिठाणाणि ॥ क.प्र. १,१०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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