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१, २, ४, १८२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया (४५३ वग्गाविभागपडिच्छेदा रूवुत्तरा । विदियादो तदियवग्गो अविभागपडिच्छेदुत्तरो। तदियादो चउत्थो वि अविभागपडिच्छेदुत्तरो। एवं णेयव्वं जाव चरिमवग्गणाएगवग्गअविभागपडिच्छेदो त्ति । तदो उवीर णियमा कमवडिवोच्छेदो । एवं सव्वफद्दयाणं परूवेदव्यो । जदि एवं घेप्पदि तो एगवग्गोलीए चेव फद्दयत्तं पसज्जदे, तत्थेव कमवड्डि-कमहाणीणं दंसणादो। ण च एवं, सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि फद्दयाणि अहोदूर्ण असंखेज्जपदरमेत्तफद्दयप्पसंगादो, सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तवग्गणाहि एगं फद्दयं होदि ति सुत्तेण सह विरोहप्पसंगादो चै । तम्हा णेदं घडदि त्ति वुत्ते वुच्चदे - एगवग्गोलिं घेत्तूण ण एगं फद्दयं होदि । किंतु सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तीओ वग्गणाओ घेत्तूण एग फद्दयं होदि, असंखेज्जाहि वग्गणाहि एगं फद्दयं होदि त्ति सुत्ते उवदित्तादो। एवं घेप्पमाणे कमवड्डि-कमहाणीओ फिट्टति त्ति णासंकणिज्ज, एगवग्गोलीए दव्वट्ठियणयावलंबणेण सगंतोखित्तासेसवग्गाए कमवडि.
हैं । द्वितीय वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रातच्छेदोंसे तृतीय वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद एक अविभागप्रतिच्छेदसे अधिक हैं। तृतीय वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंसे चतुर्थ वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद एक अविभागप्रतिच्छेदसे अधिक है। इस प्रकार अन्तिम वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदों तक ले जाना चाहिये । इसके आगे नियमसे क्रमवृद्धिका व्युच्छेद हो जाता है । इसी प्रकार सब स्पर्धकोंके कहना चाहिये।।
शंका- यदि इस प्रकार ग्रहण करते हैं तो एक वर्गपंक्तिके ही स्पर्धक होनेका प्रसंग आवेगा, क्योंकि, उसमें ही क्रमवृद्धि और क्रमहानि देखी जाती है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, इस प्रकारसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र स्पर्धक न होकर असंख्यात जगप्रतर प्रमाण स्पर्धोंके होने का प्रसंग आवेगा, तथा 'थेणिके असंख्यातवें भाग मात्र वर्गणाओंसे एक स्पर्धक होता है' इस सूत्रके साथ विरोध होनेका भी प्रसंग आवेगा। इस कारण यह घटित नहीं होता?
समाधान- इस शंकाका उत्तर देते हैं कि एक वर्गपंक्तिको ग्रहण कर एक स्पर्धक नहीं होता है, किन्तु श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र वर्गणाओंको ग्रहण कर एक स्पर्धक होता है; क्योंकि, असंख्यात वर्गणाओंसे एक स्पर्धक होता है, ऐसा सूत्रमें उपदेश किया गया है। इस प्रकार ग्रहण करनेपर क्रमवृद्धि और महानि नष्ट होती है, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि, द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे अपने भीतर समस्त वर्गणाओंको रखनेवाली एक वर्गपंक्ति सम्बन्धी क्रमवृद्धि व क्रम
१ आप्रतौ ' चरिमवग्गणाए एग-' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'आहोदूण', ताप्रती 'आ (अ) होदूण', मप्रतौ ' आहेदूण ' इति पाठः। ३ अ-आ-का-ताप्रतिषु 'च' इत्येतत्पदं नास्ति, मप्रतौ त्वस्ति तत् । ४ अ-आ-काप्रतिषु । फद्दया' इति पाठः।
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