Book Title: Shatkhandagama Pustak 10
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३४४ } छकाखंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, १२२. च, जहण्णजोगेण जहण्णबंधगद्वाए च पंधिय आगंतूण दीवसिहागंतरहेट्ठिमगोवुच्छ धरेदूण हिदो च, सरिसा । संधि पुचिल्लं गोत्तूण इमं घेतू ग परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव तदणंतरहेट्ठिमगोवुच्छाए जतिया सगलाक्खया अस्थि तत्तियमत्ता विगलपक्खेवसरूवेण वड्डिदा त्ति ।
एत्थ ताव विमलपाखवायणं कस्सामो। तं जया ---. चरिमणिसेगभागहारमंगुलस्स असंखेज्जदिमागं रूवाहियदीवसिहाए खंडिदूणे गखंडं विरलेदून एगसगलपाखेवं समखंड कादूण दिपणे एक्वकस्स रूवाहियदीवसिहामेत्तसमाणगोवुच्छाओ पार्वति ।
संपहि गोवुच्छविसेसाणं पि आगमणटुं किरियं कस्सामो । तं जहा --- रूवाहियगुणहाणिं रूवाहियदीवसिहाए गुणिय पुणो दीवसिहाए संकलगाए खंडिय तत्थ एगखंडेण रूवाहिए। रूवाहियदीवसिहाए ओवहिदअंगुलस्स असं वेज्जदिमागे भागे हिदे भागलद्धे तम्मि चेव सोहिदे सुद्धसेसं विगलपक्खेवभागहारो होदि । पुणो एदं विरलेदूण सगलपक्खेवं समखंडं कादूग दिपणे एक्केक्कस्स स्वस्स विगलपक्खेवपमाणं पावदि । पुणो एदेण पमाणेण एक्क-दो-तिषिण जाव पक्मेवभागहारमत्तविगलपवेवेसु यदेिसु एगो
योग से जघन्य बन्धककालमें आयुको बांध करके आकई दीपशिलाकी अनन्तर अधस्तन गोपुच्छाको धरकर स्थित हुआ जीव, ये दोनों सहश है । अब पूर्व जीवको छोष्टकर
और इसको ग्रहण कर के एक पाशु अधिक आदिके कमसे तदनन्तर अधस्तन गोपुच्छाम जितने सफल प्रक्षेप है उतने मात्र विकल प्रक्षेप स्वरूपसे बढ़ने तक बढ़ाना चाहिये।
यहां पहिले विकल प्रक्षेपोंके लानकी किया करते हैं। वह इस प्रकार हैअंगुलके असंख्यात भाग स्वरूप अन्तिम निपकके भागहारो रुप अधिक दीपशिलासे खण्डित कर एक खण्डका विरलन कर एक सफल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक एक रूपके प्रति रूप अधिक दीपशिखा प्रमाण समाग मोनुच्छ प्राप्त होते है।
अब गोपुच्छविशेषों के भी लाने के लिये किया करते हैं। वह इस प्रकार हैरूप अधिक गुण हानिको रूप अधिक दीपशिखासे गुणित कर पुनः दीपशिखाकी संकलनाले खण्डित कर उनमें से रूप अधिक एक खण्डका रूप अधिक दीपशिखासे अपवर्तित अंगुलके असंख्यातवें भागमें भाग देने पर जो लब्ध हो उसको उसी से कम करनेपर शेष रहा विकल प्रक्षेपका भागहार होता है। पुनः इसका विरलन करके सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक एक रूपके प्रति विकल प्रक्षेपप्रमाण प्राप्त होता है । पुनः इस प्रमाणसे एक दो तीन आदिके क्रमसे प्रक्षेपभागहार मात्र
१ अ-आ-काप्रतिषु ' वडिदेत्ति' इति पाठः ।
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