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४, २, ४, ७४ ] वेयणमहाहियारे वेयणदठवविहाणे सामित्त
[ २९५ गुरुवदसादो । अणेण विहाणेण कम्मणिज्जरं काऊण अपच्छिमे भवग्गहणे पुवकोडाउएसु मणुसेसु किमट्ठमुप्पाइदो ? खवगसेडिचडावणहूँ ।
सव्वलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो अवस्स्सीओ ॥७२॥ सुगममेदं । संजमं पडिवण्णो ॥ ७३ ॥ सुगमं ।
तत्थ भवहिदि पुव्वकोडिं देसूणं संजममणुपालइत्ता थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति यं खवणाए अब्भुट्टिदो ॥ ७४ ।।
एत्थ जहा चूलियाए च चारित्तमोहक्खवणविहाणं दसणमोहक्खवणविहाणं च परूविदं तहा परूवेदव्वं । णवरि सम्मत्तमुवसामगस्स गुणसेडीए पदेसणिज्जरादो संजदासंजदस्स गुणसेडीए पदेसणिज्जरा असंखेज्जगुणा । तत्तो संजदस्स समयं पडि गुणसेडीए
समाधान- यह गुरुके उपदेशसे जाना जाता है।
शंका- इस विधानसे कर्मनिर्जरा कराके अन्तिम भवग्रहणमें पूर्वकोटि आयु. वाले मनुष्योंमें किसलिये उत्पन्न कराया है ?
समाधान-क्षपकश्रेणि चढ़ाने के लिये उनमें उत्पन्न कराया है।
सर्वलघु कालमें योनिनिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न हो कर आठ वर्षका हुआ ॥ ७२ ॥
यह सूत्र सुगम है। पश्चात् संयमको प्राप्त हुआ ॥ ७३ ॥ यह सूत्र सुगम है।
वहां कुछ कम पूर्वकोटि मात्र भवस्थिति तक संयमका पालन कर जीवितके स्तोक शेष रहनेपर क्षपणाके लिये उद्यत हुआ ।। ७४ ॥
जिस प्रकार चूलिकामें चारित्रमोहके क्षय करने की विधि और दर्शनमोहके क्षय करनेकी विधि कही गई है उसी प्रकार यहां भी उसे कहना चाहिये । विशेषता यह है कि उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले जीवके जो गुणश्रेणि द्वारा प्रदेशनिर्जरा होती है उससे संयतासंयतके गुणश्रेणि द्वारा होनेवाली प्रदेशनिर्जरा असंख्यातमुणी है। उससे प्रतिसमय संयतके गुणश्रेणि द्वारा होनेवाली प्रदेशनिर्जरा
१ अ-आ-काप्रतिषु पुवकोडाउवएमु ' इति पाठः । २ अ-आप्रयोः 'दोबावसेसे जीविदग्वं एलिय' काप्रतौं 'द्रोवावसेसे जीविदव्वमे त्ति य' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रति किया चेव 'इति पाठः।
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