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११४ ] छक्खंडागमे वेयणांखड
[४, २, ४, ३२. पत्तयं णाम । कम्मं जत्थ वा तत्थ वा उदए दिस्सदि तमुदयविदिपत्तयं णाम । तत्थ मिच्छत्तस्स अग्गद्विदिपत्त्याक्को वा दो वा परमाणू । एवं जावुक्कस्सेण सण्णिपंचिंदियपज्जत्तेण सब्द संकिलिटेण क-महिदिचरिमसनए णिसित्तमेत्तमिदि कसायपाहुडे वुत्तं ।
एगसमयपबद्धस्स णिसभरचणाए अणवगयाए चरिमणिसेगपमाणं ण णव्वदि त्ति तप्पमाणणिण्णयजणगट्टमेगसमयपबद्धस्स ताव णिसेगपरूवणा कीरदे । तत्थ छअणिओगद्दाराणि -- परूवणा पमाणं सेडी अवहारो भागाभागो अप्पाबहुगं चेदि । सण्णिमिच्छादिट्ठिपज्जत्त-सव्वसंकिलिट्टेण बज्झमाणमिच्छत्तस्स ताव पदेसरचणाए परूवणा कीरदे । तं जहासत्तवाससहस्साणि आबा, मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं अत्थि, जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं पि अस्थि । एवं णेदव्वं जाव सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिचरिमसमओ त्ति। परूवणा गदा।
पढमाए हिदीए जे णिसित्ता परमाणू ते अणंता । एवं णेदव्वं जावुक्कस्सहिदि त्ति । पमाणं गदं ।
जो कर्म जहां तहां उदयमें देखा जाता है वह उदयस्थितिप्राप्त कहा जाता है। उनसे मिथ्यात्व कर्मका अग्रस्थितिको प्राप्त हुआ द्रव्य एक अथवा दो परमाणु होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे सर्वसंक्लिष्ट संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक द्वारा कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें जितना द्रव्य निषिक्त होता है उतना होता है, ऐसा कषायप्राभृतमें कहा है। (इससे जाना जाता है कि उक्त भागहार अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।)
एक समयप्रबद्धकी निषेकरचनाके अज्ञात होनेपर चूंकि अन्तिम निषेकका प्रमाण नहीं जाना जा सकता है अतः उसके प्रमाणका निर्णय करानेके लिये एक समयप्रबद्धके निषकोंकी प्ररूपणा करते हैं। उसमें छह अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अव. हार, भागाभाग और अल्पबहुत्व। उसमें भी सर्वप्रथम संशी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त सर्वसंक्लिष्ट जीवके द्वारा बांधे जानेवाले मिथ्यात्व कर्मकी प्रदेशरचनाको प्ररूपणा करते हैं। यथा- सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें निषिक्त होता है वह है, जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमें निषिक्त होता है वह भी है । इस प्रकार सत्तर कोड़ाकोड़ि सागरोपमके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये। प्ररूपणा समाप्त हुई।
प्रथम स्थितिमें जो परमाणु निषिक्त होते हैं वे अनन्त हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये । प्रमाणको प्ररूपणा समाप्त हुई।
१ अप्रतौ · कदा' इति पाठः ।
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