Book Title: Shatkhandagama Pustak 10
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ४, ३२. एदेहि चउहि पयोरहि पढमगुणहाणिखेत्तं फाडिये दिवड्वगुणहाणिमत्तपढमणिसेगा उप्पादेदव्वा ।
सोलसयं छप्पण्णं तत्तो गोवुच्छविसेप्सएण अहियाणि ।। जाव दु बे-सद-सोलस तत्तो य पि-सद छप्पण्णं ॥ १२ ॥ अडदाल सीदि बारसअहियसदं तह सदं च चोदालं ।
छावत्तरि सदमेयं अट्टत्तर-बिसद-छप्पण्ण ॥ १३ ॥
एदाहि दोहि गाहाहि तत्थ चउत्थखेत्तखंडपमाणं जाणिदव्वं । एदेण कमेण सव्वदव्वे पढमणिसेयपमाणेण कदे सादिरेयदिवडगुणहाणीओ होति, चरिमगुणहाणिव्वं पक्खिविय उप्पाइदत्तादो । तं चेदं ।
संपाध एत्थ चरिमगुणहाणिव्यस्स अवणयणकमो बुच्चदे । तं जहा- किंचूणपणोण्णभत्थरासिमेत्तचरिमणिसेगाणं जदि एगो पढमाणसेगो लब्भदि तो चारभगुणहाणिदव्वम्मि किंचूणदिवट्टगुणहाणितत्तचरिमणिनम्भि किं लभामा ति । ५.२ ११९१०० | सरिसमवणिय किंचूणण्णोण्णभत्थरासिणा एगरूवस्स असंखेज्जेहि भागेहि ऊंणदिवढे ओ
देखिये) प्रथम गुणहानिके क्षेत्रको फाड़ कर डेढ़ गुणहानि मात्र प्रथम निषकों को उत्पन्न कराना चाहिये।
सोलह, छप्पन, इससे आगे दो सौ सोलह प्राप्त होने तक एक गोपुच्छविशेष (३२) से उत्तरोत्तर अधिक, इसके पश्चात् दो सौ छप्पन तथा अड़तालीस, अस्सी, एक सौ बारह, एक सौ चवालीस, एक सौ छ्यत्तर, दो सौ आठ और दो सौ छप्पन, ये चतुर्थ क्षेत्रके खण्डोंका प्रमाण है ॥ १२-१३॥
इन दो गाथाओं द्वारा वहां चतुर्थ क्षेत्रके खण्डोंका प्रमाण जानना चाहिये। इस क्रमसे सब द्रव्यको प्रथम निषेकके प्रमाणसे करनेपर साधिक डेढ़ गुणहानियां होती हैं, क्योंकि, यह द्रव्य अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको मिलाकर उत्पन्न कराया गया डेढ़ गुणहानिका प्रमाण यह है- १२३ ।
अब यहां अन्तिम गुणहानिके द्रव्यके अपनयनक्रमको कहते हैं । यथा-कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि मात्र अन्तिम निषेकोका यदि एक प्रथम निषेक प्राप्त होता है तो अन्तिम गुणहानिके द्रव्यके कुछ कम डेढ़ गुणहानि मात्र अन्तिम निषेकोंमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार सहशका अपनयन करके कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे एकका असंख्यातवां भाग कम डेढ़ गुणहानिको भाजित करनेपर एकका असंख्यातवां भाग
१ प्रतिषु 'पादिय' इति पाठः।
२ अप्रतौ 'भागे हिदे ऊण' इति पाठः ।
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