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खंडागमे वैयणाखंड
[४, २, ४, ४६
णिदगावच्छविसेसेसु तप्पमाणेण कीरमाणेसु उप्पण्णसला गपमाणं उच्चदे - रूवूणहेट्ठिमविरलणमेत्तविसेसाणं जदि एगरूवपक्खेवो लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छमोवट्टिय लद्धं उवरिमविरलणाए सादिरेयजीविदद्धमेत्ताए पक्खिते एगसमयपबद्धस्स पढमविगिदिगोवुच्छभागहारो होदि । एदेण समयबद्धे भागे हिदे पढम - विगिदिगोकुच्छां आगच्छदि । सव्वविगिदिगो वुच्छाणमागमणमिच्छामो त्ति परभवियाउउक्कस्सबंध गए रूवूणाए पढमविगिदिगो वुच्छभा गहारमविट्टिय लद्धं विरलेऊण समयपबद्धं समखंड करिय दिणे रूवूणुक्कस्स बंधगद्धा मे तपढमविगिदिगोवुच्छाओ रूवं पडि पावेंति । एवमेदाओ सरिसा ण होंति, पढमविगिदिगो वुच्छादो बिदियाए संखज्जविसेसपरिहाणिदंसणादो, बिदियादो तदियाए वि खंड सलागमे त्तविसेस परिहाणिदंसणादो | एवं णेदव्वं जाव समऊणुक्कस्सबंधगद्धा त्ति संखेज्जविसेसादिसंखेज्जविसे सुत्तरअंतोमुहुत्तगच्छसंकलनमत्तगच्छविसेसा अहिया जादा ति । एदा सिमवणयणविहाणं बुच्चदे । तं जहा - पुव्वविरलगाए हेट्ठा पढमखंडपढमगो वुच्छणिसेगभागहारम्मि कदलीघादखंडस लागाहि गुणि
मात्र
विकृतिगोपुच्छ होता है । पुनः निकाले हुए गोपुच्छविशेषोंको उसके प्रमाणसे करनेपर उत्पन्न हुई शलाकाओं का प्रमाण कहते हैं - एक कम अधस्तन विरलन विशेषका यदि एक प्रक्षेप अंक प्राप्त होता है तो उपरिम विरलन मात्र विशेषका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धका साधिक जीवितार्ध मात्र उपरि विरलन में प्रक्षेप करनेपर एक समयबद्ध की प्रथम विकृतिगोपुच्छका भागहार होता है । इसका समयबद्ध में भाग देनेपर प्रथम विकृतिगोपुच्छा आती है । सब विकृतिगोपुच्छाओं के आगमन की इच्छासे एक कम परभविक आयुके उत्कृष्ट बन्धककाल से प्रथम विकृतिगोपुच्छ के भागहारको अपवर्तित कर लब्धका विरलन करके समयबद्धको समखण्ड करके देनेपर एक कम उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र प्रथम विकृतिगोपुच्छायें विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त होती हैं । इस प्रकार ये विकृतिगोपुच्छायें सदृश नहीं होती हैं, क्योंकि, प्रथम विकृतिगोपुच्छासे द्वितीय में संख्यात विशेषोंकी हानि देखी जाती है, द्वितीयसे तृतीय में भी खण्डशलाका मात्र विशेषोंकी हानि देखी जाती है | इस प्रकार समय कम उत्कृष्ट बन्धककाल तक संख्यात विशेषोंसे लेकर संख्यात विशेष अधिक के क्रमसे अन्तर्मुहूर्त गच्छोंके संकलन मात्र गोपुच्छविशेषोंके अधिक हो जाने तक ले जाना चाहिये । अब इनके अपनयन के विधानको कहते हैं । यथापूर्व विरलन के नीचे प्रथम खण्ड सम्बन्धी प्रथम गोपुच्छके निषेकभागहारको
• प्रतिषु ' बिदियगोच्छा' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु 'परमवियाउआ ' इति पाठः ।
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