Book Title: Shatkhandagama Pustak 10
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ४, ५८ } यणमहाहियारे वेपणदयविहाणे सामित भावाद।। बादरपुढविकाइएसु किमट्ठमुप्पाइदो ? ण', आउकाइयपज्जत्तेहितो मणुस्सेसुप्पण्णस्स सव्वलहुएण कालेण संजमादिगहणाभावादो ।
अंतोमुहुत्तेण सबलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ॥५७॥
पज्जतिसमाणकालो जइण्णआ वि एगसमयादिओ णत्थि, अंतोमुहुत्तमेत्तो चेवेत्ति जाणावणमतोमुहुत्तरगहणं । किम सव्वलहुं पज्जति णीदो ? सुहमणिगोदजोगादो असंखेन्जमुमेण बाहरपुद विकाइमा रज्जत्तजोगेण संचियम णवाडिसेहष्टुं । सव्वलक्षण कालेग जा पुण पज्जतीआ जसमाणादे तस्स एयंताणुवाड्विजोगकालो भहल्ला होदि । तेण तत्थ द्रव्यसंचओ वि बहुगो होदि । तप्पडिसेई सवलहुं पज्जति गाति उत्तं होदि ।
शंका - दादर पृथिवीकायिकांमें किसलिये उत्पन्न कराया है ?
समाधान --- नहीं, क्योंकि, अकायिक पर्याप्तोमे से मनुष्कीम उत्पन्न हुए जीवके पर्वलालक द्वारा संयमादिका ग्रहण सम्भव नहीं है।
विशेषार्थ - क्षपित कर्माशिक अवस्था निकट संसारके ही लम्भव है, यह तो स्पष्ट है। फिर भी वह जिस क्रमसे इस अवस्थाको प्राप्त होता है, उस क्रमका यहां निर्दश किया है। ले रह जीद पल्या असंख्यातवां भाग कम उत्कृष्ट कामस्थिति प्रमाण काल तक सूक्ष्म निमोद अवस्था में परिभ्रमण करता रहता है। फिर वहांसे निकल कर वह बादर पृथिवी कायिक पर्याप्त होता है। यह सीधा मनुष्य क्यों नहीं होता, इसका निर्देश टीकामें किया हा है।
अन्तमुहूर्त काल द्वारा अति शीघ्र सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ॥ ५७ ॥
पर्थाधियों की पूर्णताका काल जघन्य भी एक साथ आदिक नहीं है, किन्तु अन्तर्मुर्त मात्र ही है। इस बात का ज्ञान करायेके लिये सूत्र में अन्तर्मुर्त पदका ग्रहण किया है।
शंका --- अति शीघ्र पतिको क्यों पूर्ण कराया है ?
समाधान --- सूक्ष्म निगोदजीवोंके योगसे असंख्यासगुणे बादर पृथिवीकायिक भपर्याप्त जीवोंके योग द्वारा संचित होनेवाले द्रव्यमा प्रतिषेध करने के लिये सर्वलघु कालमें पर्याप्तिको पूर्ण कराया है। जो सर्वलघु काल द्वारा पर्याप्तियोंका पूर्ण नहीं करता है उसका पानानुवृद्धियोगकाल महान् होता है और इसलिये यहां द्रव्यका संचय भी बहुत होता है । अतः इस बातका निषेध करनेके लिये सर्वलधु काल द्वारा पर्याप्तियोंको पूर्ण करता है, यह कहा है।
14.ा-काप्रतिषु ' पुवाहण' इति पा3: ! १ सातौ ' संजमगहणामावादो' इति पाठः ।
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