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१, २, ४, ३६ } वेयणमहाहियारे वेयणदब्वविहाणे सामित्तं
[२२५ छण्णं कम्माणमुक्कस्साणुक्कस्सदव्वाणं परूवणा कायव्वा । णवरि मोहणीयस्स चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ णामागोदाणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ तसहिदीए ऊणाओ बादरेइंदिएसु भमावेदव्यो' । गुणहाणिसलागाणं अण्णोण्णब्भत्थरासीणं च विसेसो जाणिदन्यो।
सामित्तेण उक्कस्सपदे आउववेदणा दबदो उक्कस्सिया कस्स? ॥३५॥
किं देवस्स किं णेरइयस्स किं मणुस्सस्स किं तिरिक्खस्सेत्ति दुसंजोगादिकमेण पण्णारस भंगा वत्तव्वा ।
जो जीवो पुवकोडाउओ परभवियं पुवकोडाउअं बंधदि जलचरेसु दीहाए आउवबंधगद्धाए तप्पाओग्गसंकिलेसेण उक्कस्सजोगे बंधदि ॥३६॥
जो उवरि भणिस्समाणलक्खणेहि सहिओ सो आउअउक्कस्सदव्वस्स सामी होदि ।
प्रकार आयुको छोड़कर शेष छह कर्मों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा करना - चाहिये। विशेष इतना है कि मोहनीयकी त्रसस्थितिसे हीन चालीस कोड़ाकोहि सागरोपम और नाम व गोत्रकी उक्त स्थितिसे हीन बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम स्थिति प्रमाण बादर एकेन्द्रियों में घुमाना चाहिये। तथा गुणहानिशलाकाओं और अन्योन्याभ्यस्त राशियोंके विशेषको भी जानना चाहिये ।
स्वामित्वसे उत्कृष्ट पदमें आयु कर्मकी वेदना उत्कृष्ट किसके होता है ? ॥ ३५॥
उक्त वेदना क्या देवके होती है, क्या नारकीके होती है, क्या मनुष्यके होती है और क्या तिर्यचके होती है, इस प्रकार द्विसंयोग आदिके क्रमसे पन्द्रह भंगोंको कहना चाहिये।
जो जीव पूर्वकोटि प्रमाण आयुसे युक्त होकर जलचर जीवोंमें परभव सम्बन्धी पूर्वकोटि प्रमाण आयुको बांधता हुआ दीर्घ आयुबन्धककालमें तत्प्रायोग्य संक्लेशसे उत्कृष्ट योगमें बांधता है, उसके द्रव्यकी अपेक्षा आयु कर्मकी उत्कृष्ट वेदना होती है ।। ३६॥
जो जीव आगे कहे जानेवाले लक्षणोंसे सहित हो वह आयु कर्मके उत्कृष्ट
. अ-आ-काप्रतिषु 'भमादोदरो', तापतौ 'भमादेदवो' इति पाठः। २ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु 'उक्कस्सपदेस' इति पाठः । ३ कश्चिज्जीवः कर्मभूमिमनुष्यः भुज्यमानपूर्वकोटिवर्षायुष्कः परमसम्बन्धिपूर्वरिवर्षायुष्य जलचरेषु दीर्घायुबन्धाद्धया तत्प्रायोग्यसंक्लेशेन तत्प्रायोग्योकृष्टयोगेन च बध्नाति । गो.जी. (जी. प्र.) १५० छ.वे. २९.
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