________________
२०
संस्कृति के दो प्रवाह
इस प्रश्न के उत्तर में असुर राजाओं ने जो कहा वह उनकी आत्मविद्या का ही फलित था। विरोचनकुमार बलि ने इन्द्र को इस प्रकार फटकारा कि उसका गर्व चूर हो गया। बलि ने इन्द्र से कहा---'देवराज ! तुम्हारी मूर्खता मेरे लिए आश्चर्यजनक है। इस समय तुम समृद्धिशाली हो और मेरी समद्धि छिन्न हो गई है। ऐसी अवस्था में तुम मेरे सामने अपनी प्रशंसा के गीत गाना चाहते हो, यह तुम्हारे कुल और यश के अनुरूप नहीं है।' नमुचि और बलि राज्यहीन होने पर भी जिस प्रकार शोकमुक्त रहे, वह उनकी अध्यात्म-विद्या का ही फल था। इन्द्र उनके धैर्य और अशोक-भाव को देख कर आश्चर्यचकित रह गया।'
___महाभारत में असुरों पर वैदिक विचारों की छाप लगाई गई है फिर भी उनकी अशोक, शान्त व समभावी वत्ति से जो आत्म-विद्या की झलक मिलती है, निश्चित रूप से उन्हें श्रमण-धर्मानुयायी सिद्ध करती है। सांस्कृतिक विरोध
असुरों और वैदिक-आर्यों का विरोध केवल भौगोलिक और राजनीतिक ही नहीं, किन्तु सांस्कृतिक भी था। आर्यों ने असुरों की अहिंसा का विरोध किया तो असुरों ने आर्यों की हिंसा और यज्ञ-पद्धति का विरोध किया।
भारतवर्ष में वैदिक-आर्यों का अस्तित्व सुदढ़ होने के साथ-साथ यह विरोध की धारा प्रबल हो उठी थी। एम. विन्टरनिटज ने लिखा है'वेदों के विरुद्ध प्रतिक्रिया बुद्ध से सदियों पूर्व शुरू हो चकी थी। कम-सेकम जैनों की परम्परा में इस प्रतिक्रिया के स्पष्ट निर्देश मिलते हैं और जैन-धर्म की संस्थापना ७५० ई० पू० में हो चुकी थी। इस विषय में जैनों की अन्यथा विश्वसनीय काल-बुद्धि और काल-गणना को यहां (और यहीं पर ?) झुठलाने की आवश्यकता नहीं। व्यूलर का तो यह विश्वास था कि वेदों (और ब्राह्मण धर्म) की प्रगति तथा वेद-विरोध की प्रगति, दोनों प्रायः समानान्तर ही होती रही हैं । दुर्भाग्यवश, एक निश्चित सिद्धान्त के रूप में यह साबित करने से पूर्व ही व्यूलर की मृत्यु हो गई।
श्रमण संस्कृति का अस्तित्व पूर्ववर्ती था इसलिए वैदिक यज्ञ-संस्था (ग) महाभारत, शांतिपर्व, २२२।११ : बद्धः पाशैश्च्युतः स्थानाद्, द्विषतां वशमागतः ।
श्रिया विहीनः प्रह्लाद !, शोचितव्ये न शोचसि ?॥ १. महाभारत, शान्तिपर्व, २२७।१३ । २. प्राचीन भारतीय इतिहास, प्रथम भाग, प्रथम खंड, पृ० २३३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org