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संस्कृति के दो प्रवाह
दोनों अर्थ देने लगा।
मनुस्मृति में त्रिवर्ग के विषय में अनेक धारणाएं बतलाई गई हैं। कुछ आचार्य मानते थे कि धर्म और अर्थ श्रेय है । कुछ मानते थे कि काम और अर्थ श्रेय है । एक मत था धर्म ही श्रेय है। कुछ अर्थ को ही श्रेय मानते थे। मन ने त्रिवर्ग को श्रेय माना।' यह अभिमत समाजशास्त्र की दृष्टि से परिपूर्ण है। कौटिल्य ने अर्थ को प्रधान माना। धर्म
और काम का मूल, उनकी दृष्टि में, अर्थ ही था। इससे भी धर्म का अर्थ लौकिक आचार ही प्रतीत होता है। महाभारत के अनुसार सन्तनार्थी व्यक्तियों का प्रवृत्ति-धर्म मुमुक्ष लोगों के लिए नहीं है।' इसका फलित स्पष्ट है-संतानोत्पत्ति का धर्म मोक्ष-धर्म नहीं है। अर्थ से धर्म और काम सिद्ध होते हैं और धर्म धन से प्रवृत्त होता है-यह मान्यता भी धर्म के उस अर्थ पर आधारित है, जिसका संबंध मोक्ष से नहीं है।
जैन दर्शन प्रारम्भ से ही निर्वाणवादी रहा है। अतः आध्यात्मिक मूल्यों की दृष्टि से वहां धर्म और मोक्ष-ये दो ही पुरुषार्थ मान्य रहे हैं। गृहस्थ सामाजिक मर्यादा से मुक्त नहीं हो सकते, अतः उनके लिए सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से अर्थ और काम-ये दोनों पुरुषार्थ मान्य रहे हैं । किन्तु उनकी व्यवस्था तात्कालिक समाज-शास्त्रों द्वारा की गई।
जैन आचार्यों ने लौकिक मान्यता प्राप्त त्रिवर्ग को लौकिक-शास्त्र का ही विषय बतलाया। उन्होंने उसकी व्यवस्था नहीं दी। उन्होंने केवल आध्यात्मिक मूल्यों की चर्चा की और एक मोक्ष-दर्शन के लिए यही अधिकृत १. मनुस्मृति, २१२२४ : धर्मार्थावुच्यते श्रेयः, कामाथों धर्म एव च ।
अर्थ एवेह वा श्रेयः, त्रिवर्ग इति तु स्थितिः ॥ २. कौटिल्य अर्थशास्त्र, ११७।३ : अर्थ एव प्रधानः इति कोटल्य:-अर्थमूली हि
धर्मकामाविति । ३. महाभारत, अनुशासनपर्व, ११५२४७ : प्रवृत्तिलक्षणो धर्मः प्रजाथिभिरुदाहृतः । यथोक्तं राजशार्दूल ! न तु तन्मोक्षकाङक्षिणाम् ।। ४. (क) महाभारत, शान्तिपर्व, ८।१७ :
अर्थाद्धर्मश्च कामश्च, स्वर्गश्चैव नराधिपः ।
प्राणयात्रापि लोकस्य, बिना ह्यर्थ न सिद्धयति ।। (ख) महाभारत, शान्तिपर्व, ८।१२ :
यं विमं धममित्याहुर्धनादेष प्रवर्तते ।
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