________________
१८२
संस्कृति के दो प्रवाह ब्राह्मण मत में विलीन हो गए। किन्तु मणिमेखले से यही प्रमाणित होता है कि आजीवक-श्रमण दिगम्बर श्रमणों में विलीन हो गए।
__ आजीवक नग्नत्व के प्रबल समर्थक थे। उनके विलय होने के पश्चात् सम्भव है कि दिगम्बर परम्परा में भी अचेलता का आग्रह हो गया। यदि आग्रह न हो तो सचेल और अचेल-इन दोनों अवस्थाओं का सुन्दर सामञ्जस्य बिठाया जा सकता है, जैसा कि भगवान् महावीर ने बिठाया था। (५) प्रतिक्रमण
भगवान पार्श्व के शिष्यों के लिए दोनों सन्ध्याओं में प्रतिक्रमण करना अनिवार्य नहीं था। जब कोई दोषाचरण हो जाता, तब वे उसका प्रतिक्रमण कर लेते। भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों के लिए दोनों संध्याओं में प्रतिक्रमण करना अनिवार्य कर दिया, भले फिर कोई दोषाचरण हुआ हो या न हुआ हो।" (६) अवस्थित और अनवस्थित कल्प
भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर के शासन-भेद का इतिहास दस कल्पों में मिलता है। उनमें से चातुर्याम-धर्म, अचेलता और प्रतिक्रमण पर हम एक दृष्टि डाल चुके हैं। भगवान् पार्श्व के शिष्यों के लिए-१. शय्यातर-पिण्ड (उपाश्रय दाता के घर का आहार) न लेना, २. चातुर्याम-धर्म का पालन करना, ३. पुरुष को ज्येष्ठ मानना, ४. दीक्षा पर्याय में बड़े साधुओं को वंदना करना-ये चार कल्प अवस्थित थे। १. अचेलक, २. औद्देशिक, ३. प्रतिक्रमण, ४. राजपिण्ड, ५. मासकल्प, ६. पर्युषण कल्प-ये छहों कल्प अनवस्थित थे-ऐच्छिक थे। भगवान् महावीर के शिष्यों के लिए ये सभी कल्प अवस्थित थे, अनिवार्य थे। परिहार विशुद्ध चारित्र भी भगवान् महावीर की देन थी। इसे छेदोपस्थापनीय चारित्र की भांति 'अवस्थितकल्पी' कहा गया है। १. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, खण्ड १, पृ० १२६ । २. बुद्धिस्ट स्टडीज, पृ० १५। ३. (क) आवश्यकनिर्युक्ति, १२४४ ।
(ख) मूलाचार ७।१२५-१२६ । ४. भगवती, २५४६१ :
सामाइयसंजए णं भंते ! किं ठियकप्पे होज्जा अट्ठियकष्पे होज्जा ? गोयमा ठियकप्पे वा होज्जा अट्ठियकप्पे वा होज्जा, छेदोवट्ठावणियसंजए पुच्छा, गोयमा ! ठियकप्पे होज्जा नो अट्ठियकप्पे होज्जा । ५. भगवती, २५१४६१ ।
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org