Book Title: Sanskruti ke Do Pravah
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 226
________________ योग २१६ विकसित रूप प्राप्त नहीं है । बुद्ध ने ध्यान को बहुत महत्त्व दिया था। महावीर की परम्परा में भी इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। योगदर्शन में भी इसका महत्त्व स्वीकृत है। उत्तरवर्ती उपनिषदों में भी इसे बहुत मान्यता मिली है। भारतीय साधना की समग्र धाराओं ने इसे सतत प्रवाहित रखा। चित्त और ध्यान ___मन की दो अवस्थाएं हैं-(१) चल और (२) स्थिर। चल अवस्था को 'चित्त' और स्थिर अवस्था को 'ध्यान' कहा जाता है। वस्तुतः चित्त और ध्यान एक ही मन (अध्यवसाय) के दो रूप हैं। मन जब गुप्त, एकाग्र या निरुद्ध होता है, तब उसकी संज्ञा ध्यान हो जाती है। भावना, अनुप्रेक्षा और चिता-ये सब चित्त की अवस्थाएं हैं। भावना- ध्यान के अभ्यास की क्रिया। अनुप्रेक्षा- ध्यान के बाद होने वाली मानसिक चेष्टा। चिता- सामान्य मानसिक चिन्तन । इनमें एकाग्रता का वह रूप प्राप्त नहीं होता, जिसे ध्यान कहा जा सके। ध्यान शब्द 'ध्यैङ् चिन्तायाम्' धातु से निष्पन्न होता है। शब्द की उत्पत्ति की दृष्टि से ध्यान का अर्थ चिन्तन होता है, किन्तु प्रवृत्ति-लभ्य अर्थ उससे भिन्न है । ध्यान का अर्थ चिन्तन नहीं किन्तु चिन्तन का एकाग्रीकरण अर्थात् चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर करना या उसका निरोध करना है। तत्त्वार्थ सूत्र में एकाग्रचिन्ता तथा शरीर, वाणी और मन के निरोध को ध्यान कहा गया है। इससे यह ज्ञात होता है कि जैन परम्परा में ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से ही नहीं माना गया था। वह मन, वाणी और शरीर-इन तीनों से सम्बन्धित था। इस अभिमत के आधार पर उसकी पूर्ण परिभाषा इस प्रकार बनती है-शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवृत्ति तथा उनकी निरेजन दशा-निष्प्रकम्प दशा ध्यान है। पतञ्जलि ने १. ध्यानशतक २ : जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । २. वही, २ : तं होज्ज भावणा वा अणुप्पेहा वा अहव चिता। ३. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४६३: अंतोमुहुत्तकालं चित्तस्सेगग्गगया हवइ झाणं ४. तत्त्वार्थ, सूत्र ६।२७ : उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् । ५. आवश्यकनियुक्ति १४६७-१४६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274