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योग
२२१ अर्थ मानसिक एकाग्रता है, तो इसकी संगति जैन परम्परा सम्मत उस प्राचीन अर्थ---शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवत्ति या निरेजन दशा ध्यान है के साथ कैसे होगी ?'
आचार्य भद्रबाह ने इसका समाधान इस प्रकार किया-शरीर में वात, पित्त, और कफ-ये तीन धातु होते हैं। उनमें से जो प्रचुर होता है, उसी का व्यपदेश किया जाता है--जैसे वायु कुपित है। जहां 'वायु कुपित है'-ऐसा निर्देश किया जाता है, उसका अर्थ यह नहीं है कि वहां पित्त और श्लेष्मा नहीं हैं। इसी प्रकार मन की एकाग्रता ध्यान है-यह परिभाषा भी प्रधानता की दृष्टि से है। जैसे मन की एकाग्रता व निरोध मानसिक ध्यान कहलाता है वैसे ही 'मेरा शरीर अकम्पित हो'----यह संकल्प कर जो स्थिरकाय बनता है, वह कायिक ध्यान है।' इसी प्रकार संकल्प पूर्वक अकथनीय भाषा का वर्जन किया जाता है, वह वाचिक ध्यान है। जहां मन एकाग्र व अपने लक्ष्य के प्रति व्याप्त होता है तथा शरीर और वाणी भी उसी लक्ष्य के प्रति व्याप्त होते हैं, वहां मानसिक कायिक और वाचिक-ये तीनों ध्यान एक साथ हो जाते हैं। जहां कायिक या वाचिक ध्यान होता है, वहाँ मानसिक ध्यान भी होता है, किन्तु वहां उसकी प्रधानता नहीं होती, इसलिए वह मानसिक ही कहलाता है । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि मन सहित वाणी और काया का व्यापार होता है, उसका नाम भावक्रिया है और जो भावक्रिया है, वह ध्यान है।' वाचिक या कायिक ध्यान के साथ मन संलग्न होता है, फिर भी उनका विषय एक होता है, इसलिए उसे अनेकाग्र नहीं कहा जा सकता। वह व्यक्ति जो मन से ध्यान करता है, वही वाणी से बोलता है और उसी में उसकी काया संलग्न होती है । यह उनकी अखण्डता या एकाग्रता है। __ध्यान में शरीर, वाणी और मन का निरोध ही नहीं होता, प्रवृत्ति भी होती है । सहज ही प्रश्न होता है कि स्वाध्याय में मन की एकाग्रता होती है और ध्यान में भी । उस स्थिति में स्वाध्याय और ध्यान ये दो क्यों ? स्वाध्याय में मन की एकाग्रता होती है किन्तु वह घनीभूत नहीं होती इसलिए उसे ध्यान की कोटि में नहीं रखा जा सकता। ध्यान चित्त की घनीभूत अवस्था है।
१. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४६७ । २. वही, गाथा १४६८,१४६६ । ३. वही, गाथा १४७४ ।
४. वही, गाथा १४७६,१४७७ । ५. वही, गाथा १४७८ । ६. वही, गाथा १४८६ ।
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