Book Title: Sanskruti ke Do Pravah
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 241
________________ २३४ संस्कृति के दो प्रवाह अनेक तर्कों के द्वारा नहीं जाना जाता, वह ध्यान के द्वारा सहज ही ज्ञात हो जाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है-"कर्म क्षीण होने पर मोक्ष होता है, कर्म आत्म-ज्ञान से क्षीण होते हैं और आत्म-ज्ञान ध्यान से होता है। यह ध्यान का प्रत्यक्ष फल है।"' पारलौकिक या परोक्ष फल के विषय में सन्देह हो सकता है, इसीलिए हमारे आचार्यों ने ध्यान के ऐहिक या प्रत्यक्ष फलों का भी विवरण प्रस्तुत किया है। ध्यान-सिद्ध व्यक्ति कषाय से उत्पन्न होने वाले मानसिक दुःखों-ईर्ष्या, विषाद, शोक, हर्ष आदि से पीड़ित नहीं होता । वह सर्दी-गर्मी आदि से उत्पन्न शारीरिक कष्टों से भी पीड़ित नहीं होता। यह तथ्य वर्तमान शोधों से भी प्रमाणित हो चुका है कि बाह्य परिस्थितियों से ध्यानस्थ व्यक्ति बहुत कम प्रभावित होता है। अन्तरिक्ष यात्रियों के लिए अत्यधिक सर्दी और गर्मी से अप्रभावित रहना आवश्यक है। इस दष्टि से योग की प्रक्रिया को अन्तरिक्ष यात्रा के लिए उपयोगी समझा गया। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए रूसियों और अमरीकियों ने भारत में आकर योगाभ्यास की अनेक प्रक्रियाओं का ज्ञान प्राप्त किया। शुक्लध्यान शुक्लध्यान के लिए उपयुक्त सामग्री अभी प्राप्त नहीं है, अतः आधनिक लोगों के लिए उसका अभ्यास भी संभव नहीं है। फिर भी उसका विवेचन आवश्यक है। उसकी परम्परा का विच्छेद नहीं होना चाहिए, आचार्य हेमचन्द्र की यह मान्यता है।' इस मान्यता में सचाई भी है। अविच्छिन्न परम्परा से यदा-कदा कोई व्यक्ति थोड़ी बहुत मात्रा में लाभान्वित हो सकता है। अब हम भावना आदि बारह विषयों के माध्यम से शुक्लध्यान का विवेचन करेंगे। भावना, प्रदेश, काल और आसन-ये चार विषय धर्म और शुक्ल-दोनों के समान हैं। आलम्बन आदि दोनों के भिन्न-भिन्न हैं। आलम्बन-शुक्लध्यान के आलम्बनों की चर्चा 'ध्यान के प्रकार' १. योगशास्त्र, ४।११३ : मोक्षः कर्मक्षयादेव, स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तध्यानं हितमात्मनः ।। २. ध्यानशतक, १०३,१०४। ३. योगशास्त्र, १११३,४ । ४. भ्यानशतक, ६८, वृत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274