Book Title: Sanskruti ke Do Pravah
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 260
________________ चर्या २५३ किया गया और (२) धर्मोपदेश स्वाध्याय का ही एक अंग है, इसलिए उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया। सेवा की अपेक्षा कदाचित् होती है। आहार, नींद और उत्सर्ग-ये शरीर की अपेक्षाएं हैं। विहार भी निरन्तर चर्या नहीं है । ध्यान साधना की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण काम है, अतः उसके लिए दो प्रहर का समय निश्चित किया गया। स्वाध्याय के लिए चार प्रहर का समय निश्चित किया, उसका अर्थ यह नहीं है कि जैन श्रमण ध्यान की अपेक्षा स्वाध्याय को अधिक महत्त्व देते थे, किन्तु उसके पीछे एक विशेष दृष्टि थी। उस समय सारा श्रुत कण्ठस्थ था। लिखने की परम्परा नहीं थी। श्रुत-ज्ञान की परम्परा को अविच्छिन्न रखने के लिए स्वाध्याय में समय लगाना अपेक्षित था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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