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२५. चर्या
चर्या देश-काल के परिवर्तन के साथ परिवर्तित होती रहती है। प्राचीन काल में साधुओं की चर्या के मुख्य अंग आठ थे(१) स्वाध्याय,
(५) आहार, (२) ध्यान,
(६) उत्सर्ग, (३) प्रतिलेखन,
(७) निद्रा और (४) सेवा,
(८) विहार । - जैन श्रमण समय की प्रामाणिकता का बहत ध्यान रखते हैं। काले कालं समायरे''...-सब काम ठीक समय पर करो, यह उनका मुख्य सूत्र था। कालक्रम के अनुसार उनकी दिनचर्या की रूपरेखा इस प्रकार थी—दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में आहार और चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय । रात के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में नींद और चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय।' प्रतिलेखन प्रथम और चतुर्थ प्रहर के प्रारम्भ में किया जाता था। विहार और उत्सर्ग भी सामान्यतः तीसरे प्रहर में किए जाते थे । आवश्यकता के कार्य अन्य समय में भी किए जाते थे। सेवा के लिए कोई निश्चित समय नहीं था। जब आवश्यकता होती, तभी वह की जाती। यह निश्चित है कि सेवा को प्राथमिकता दी जाती थी। शिष्य दिन के प्रारम्भ में ही आचार्य से प्रश्न करता-"भन्ते ! आप मुझे सेवा में नियुक्त करना चाहते हैं या स्वाध्याय में ?" आचार्य के सामने सेवाकार्य की आवश्यकता होती तो वे उसे सेवा में नियुक्त कर देते।"
यह आश्चर्य की बात है कि चर्या में धर्मोपदेश का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इसके दो कारण हो सकते हैं-(१) धर्मोपदेश करना हर मुनि का काम नहीं था, इसलिए मुनि की सामान्य चर्या में उसका उल्लेख नहीं
१. उत्तराध्ययन, १।३१ । २. वही, २६।१२। ३. वही, २६।१८। ४. वही, २६१५१ । ५. वही, २६।९-१० ।
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