Book Title: Sanskruti ke Do Pravah
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 255
________________ २३. बाह्य जगत् और हम . प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं-(१) शरीर, (२)वाणी और (३) मन । इन्हीं द्वारा हम बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित किए हुए हैं। इन्द्रियों के द्वारा भी हम बाह्य जगत से सम्पक्त हैं। बाह्य जगत का वास्तविक अस्तित्व है और हमारा अस्तित्व भी वास्तविक है। साधना की प्रक्रिया में किसी के अस्तित्व को चनौती नहीं दी जाती, किन्तु अपने अस्तित्व के प्रति जागरूकता उत्पन्न की जाती है । उसकी प्रक्रिया को 'गुप्ति' कहा जाता है । उसके द्वारा बाह्य जगत् के साथ हमारा रागात्मक सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है, ज्ञानात्मक सम्बन्ध विच्छिन्न होता ही नहीं और उसे करने की आवश्यकता भी नहीं है। गुप्तियां तीन हैं—(१) मन-गुप्ति, (२) वचन-गुप्ति और (३) काय-गुप्ति । (१) मन-गुप्ति-राग-द्वेष की निवृत्ति या मन का संवरण। (२) वचन-गुप्ति-असत्य वचन आदि की निवृत्ति या मौन । (३) काय-गुप्ति-हिंसा आदि की निवृत्ति या कायिक-क्रिया का संवरण। गुप्ति के द्वारा बाह्य जगत् के साथ हमारा जो रागात्मक सम्बन्ध है, उसका निवर्तन होता है और बाह्य जगत् के साथ हमारा जो प्रवृत्यात्मक सम्बन्ध है, उसका भी निवर्तन होता है । एक व्यक्ति रागात्मक चितन नहीं करता, यह भी मन-गुप्ति है और शुभ चिन्तन करता है, वहां भी मन-गुप्ति है। व्यक्ति रागात्मक वचन नहीं बोलता, यह भी वचनगुप्ति है और शुभ वचन बोलता है, वहां भी वचन-गुप्ति है। एक व्यक्ति रागात्मक गमनागमन नहीं करता, यह भी काय-गुप्ति है. और शुभ गमनागमन करता है, वहां भी काय-गृप्ति है। आत्मा और बाह्य जगत का सम्बन्ध विजातीय तत्त्व (पौद्गलिक द्रव्य) के माध्यम से बना हुआ है । उसके दो अंग हैं-(१) पुण्य और (२) पाप । इनका सम्बन्ध-निरोध गुप्तियों से होता है। मन-गुप्ति से चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है।' १. मूलाराधना, ११८७,८८, विजयोदया वृत्ति। २. उत्तराध्ययन, २६१५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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