Book Title: Sanskruti ke Do Pravah
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 249
________________ २४२ सोया संस्कृति के दो प्रवाह हुआ न धर्म - शुक्ल और न आर्त्त - रौद्र किन्तु चिन्तन- शून्य दशा (८) निपन्न ( 2 ) निपन्न - निपन्न सोया हुआ आर्त्त रौद्र ध्यान ।' अमितगति ने कायोत्सर्ग के चार ही प्रकार माने हैं - ( १ ) उत्थितउत्थित, (२) उत्थित - उपविष्ट, (३) उपविष्ट - उत्थित और ( ४ ) उपविष्टउपविष्ट । (१) जो शरीर से खड़ा है और धर्म - शुक्ल ध्यान में लीन है, वह शरीर से भी उन्नत है और ध्यान से भी उन्नत है, इसलिए उसका कायोत्सर्गं 'उत्थित- उत्थित' कहलाता है । (२) जो शरीर से खड़ा है और आर्त-रौद्र ध्यान में लीन है, वह शरीर से उन्नत किन्तु ध्यान से अवनत है, इसलिए उसका कायोत्सर्ग 'उत्थित - उपविष्ट' कहलाता है । (३) जो शरीर से बैठा है और धर्म-शुक्ल ध्यान में लीन है, वह शरीर से अवनत है किन्तु ध्यान से उन्नत है, इसलिए उसका कायोत्सर्ग 'उपविष्ट - उत्थित' कहलाता है । (४) जो शरीर से बैठा है और आर्त्त - रौद्र ध्यान में लीन है, वह शरीर और ध्यान - दोनों से अवनत है; इसलिए उसका कायोत्सर्ग 'उपविष्ट - उपविष्ट कहलाता है । कायोत्सर्ग खड़े, बैठे और सोते- तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है। फिर भी खड़ी मुद्रा में उसका प्रयोग अधिक हुआ है। अपराजित सूरि ने लिखा है कि कायोत्सर्ग करने वाला व्यक्ति शरीर से निस्पृह होकर खम्भे की भांति सीधा खड़ा हो जाए। दोनों बाहों को घुटनों की ओर फैला दे । प्रशस्त ध्यान में निमग्न हो जाए। शरीर को न अकड़ा कर खड़ा हो और न झुका कर ही । समागत कष्टों और परीषहों को सहन करे । कायोत्सर्ग का स्थान भी एकान्त और जीव-जन्तु रहित होना चाहिए। * कायोत्सर्ग के उक्त प्रकार शरीर - मुद्रा और चिन्तन-प्रवाह के आधार १. आवश्यक निर्युक्ति गाथा, १४५६, १४६० । २. अमितगति, श्रावकाचार, ८।५७-६१ । Jain Education International ३. योगशास्त्र, ३ पत्र २५० । ४. मूलाराधना, २।११६, विजयोदया, वृत्ति पृ० २७८,२७६ : तत्र शरीरनिस्पृहः स्थाणुरिवोर्ध्व कायः, प्रलम्बितभुजः, प्रशस्तध्यानपरिणतोऽनुन्नमितानतकायः, परीषहानुपसर्गाश्च सहमानः, तिष्ठन्निर्जन्तुके कर्मापायाभिलाषी विविक्ते देशे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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