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योग ...
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मानी है।' वह इस प्रकार है
(१) स्वाध्याय-काल में (२) वंदना-काल में (३) प्रतिक्रमण-काल में (४) योग-भक्ति-काल में
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पांच महाव्रतों सम्बन्धी अतिक्रमणों के लिए १०८ उच्छ्वासों का कायोत्सर्ग करने की विधि रही है। कायोत्सर्ग करते समय यदि उच्छवासों की संख्या में संदेह हो जाए अथवा मन विचलित हो जाए तो आठ उच्छवासों का अतिरिक्त कायोत्सर्ग करने की विधि रही है।' ऊपर के विवरण से सहज ही निष्पन्न होता है कि प्राचीन काल में कायोत्सर्ग मुनि की दिनचर्या का प्रमुख अंग था। उत्तराध्ययन के सामाचारी प्रकरण में भी अनेक बार कायोत्सर्ग करने का उल्लेख है ।' दशवकालिक चूलिका में मुनि को बार-बार कायोत्सर्ग करने वाला कहा गया है। कायोत्सर्ग का फल
__ कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त के रूप में भी किया जाता है, अत: उसका एक फल है-दोष-विशुद्धि ।
अपने द्वारा किए हुए दोष का हृदय पर भार होता है। कायोत्सर्ग करने से वह हल्का हो जाता है, हृदय प्रफुल्ल हो जाता है। अतः उसका दूसरा फल है-हृदय का हल्कापन ।
हृदय हल्का होने से ध्यान प्रशस्त हो जाता है, यह उस का तीसरा
१. अमितगति श्रावकाचार, ८।६६-६७ :
अष्टविंशतिसंख्यानाः, कायोत्सर्गा मता जिनः । अहोरात्रगताः सर्वे, षडावश्यककारिणाम् ॥ स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञः, वंदनायां षडीरिताः ।
अष्टौ प्रतिक्रमे योगभक्तौ तौ द्वावुदाहृतौ ॥ २. मूलाराधना, २।११६ विजयोदया वृत्ति : प्रत्यूषसि प्राणिवधादिषु पंचस्वतीचारेषु
अष्टशतोच्छ्वासमात्रकालः कायोत्सर्गः । कायोत्सर्गे कृते यदि शंक्यते उच्छ्वासस्य स्खलनं वा परिणामस्य उच्छ्वासाष्टकमधिकं स्थातव्यम् । ३. उत्तराध्ययन, २६॥३८-५१ । ४. दशवैकालिक, चूलिका २१७ : अभिक्खणं काउस्सग्गकारी।
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