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संस्कृति के दो प्रवाह निरालम्बन होना चाहिए। ध्यान की मर्यादाएं
___ ध्यान करने की कुछ मर्यादाएं हैं। उन्हें समझ लेने पर ही ध्यान करना सुलभ होता है। सभी ध्यानशास्त्रों में न्यूनाधिक रूप से उनकी चर्चा प्राप्त है । जैन आचार्यों ने भी उनके विषय में अपना अभिमत प्रदर्शित किया है।
ध्यानशतक में ध्यान से सम्बन्धित बारह विषयों पर विचार किया गया है। वे ये हैं
(१) भावना, (२) प्रदेश, (३) काल, (४) आसन, (५) आलम्बन, (६) क्रम, (७) ध्येय, (८) ध्याता, (६) अनुप्रेक्षा, (१०) लेश्या, (११) लिङ्ग और (१२) फल ।'
पहले हम इन विषयों के माध्यम से धर्मध्यान पर विचार करेंगे।
(१) भावना ध्यान की योग्यता उसी व्यक्ति को प्राप्त होती है, जो पहले भावना का अभ्यास कर चुकता है। इस प्रसंग में चार भावनाएं उल्लेखनीय हैं
(१) ज्ञान-भावना--ज्ञान का अभ्यास ; ज्ञान में मन की लीनता, (२) दर्शन-भावना-मानसिक मूढ़ता के निरसन का अभ्यास,. (३) चारित्र-भावना-समता का अभ्यास, (४) वैराग्य-भावना-जगत् के स्वभाव का यथार्थ दर्शन ; आसक्ति,
भय और आकांक्षा से मुक्त रहने का
अभ्यास । इन भावनाओं के अभ्यास से ध्यान के योग्य मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है। आचार्य जिनसेन ने ज्ञान-भावना के पांच प्रकार बतलाए हैं-वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तना और धर्म-देशना । दर्शन-भावना के सात प्रकार बतलाए हैं—संवेग, प्रशम, स्थैर्य, अमूढ़ता, अगर्वता, आस्तिक्य और अनुकम्पा । चारित्र-भावना के नौ प्रकार बतलाए हैं--पांच समितियां, तीन गुप्तियां और कष्ट-सहिष्णुता। वैराग्य-भावना के तीन प्रकार बतलाए हैं—विषयों के प्रति अनासक्ति, कायतत्त्व का अनुचिन्तन और जगत् के स्वभाव का विवेचन ।' १. ध्यानशतक, २८,२६ । २. ध्यानशतक, ३० । ३. महापुराण, २११६६-६६ ।
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