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गोग
२२७ भभक रही है। उससे हृदय-स्थित अष्टदल कमल, जो आठ कर्मों का सूचक है, जल रहा है । वह भस्मीभूत हो गया है। अग्नि शान्त हो गई है, पह 'आग्नेयी' धारणा है।
(३) मारुती-फिर यह कल्पना करे कि वेगवान् वायु चल रहा है, उसके द्वारा जले हुए कमल की राख उड़ रही है, यह 'मारुती' धारणा है।
(४) वारुणी-फिर यह कल्पना करे कि तेज वर्षा हो रही है, बची हुई राख उसके जल में प्रवाहित हो रही है, यह 'वारुणी' धारणा है।
(५) तत्त्वरूपवती-फिर कल्पना करे कि यह आत्मा 'अर्हत्' के समान है, शुद्ध है, अतिशय सम्पन्न है, यह 'तत्त्वरूपवती' धारणा है। हेमचन्द्र ने इसका 'तत्त्वभू' नाम भी रखा है।
__ पदस्थ ध्यान में मंत्र-पदों का आलम्बन लिया जाता है। ज्ञानार्णव (३८।१-१६) और योगशास्त्र (८।१-८०) में मंत्र-पदों की विस्तार से चर्चा की है।
रूपस्य ध्यान में 'अर्हत्' के रूप (प्रतिमा) का आलम्बन लिया जाता है। वीतराग का चिन्तन करने वाला वीतराग हो जाता है और रोगी का चिन्तन करने वाला रोगी। इसीलिए रूपस्थ ध्यान का आलम्बन वीतराग का रूप होता है।
पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ-इन तीनों ध्यानों में आत्मा का चिदानन्दमय स्वरूप होता है। इसमें ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता होती है । इस एकीकरण को 'समरसी-भाव' कहा जाता है। यह निरालम्बन ध्यान है। इसे ध्यान मानने का आधार निश्चय नय है।
प्रारम्भ में सालम्बन ध्यान का अभ्यास किया जाता है। इसमें एक स्थूल आलम्बन होता है, अतः इससे ध्यान के अभ्यास में सुविधा मिलती है । जब इसका अभ्यास परिपक्व हो जाता है तब निरालम्बन ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। जो व्यक्ति सालम्बन ध्यान का अभ्यास किए बिना सीधा निरालम्बन ध्यान करना चाहता है, वह वैचारिक आकुलता से घिर जाता है । इसीलिए आचार्यों ने चेताया कि पहले सालम्बन ध्यान का अभ्यास करो। वह सध जाए तब उसे छोड़ दो, निरालम्बन ध्यान के अभ्यास में लग जाओ।' ध्यान के अभ्यास का यह क्रम प्रायः सर्वसम्मत रहा है--स्थूल से सूक्ष्म, सविकल्प से निर्विकल्प और सालम्बन से १. योगशास्त्र, ६।१३। २. ज्ञानसार, ३७; योगशात्र, १०१४
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