Book Title: Sanskruti ke Do Pravah
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 236
________________ पोग २२६ 1 (२) प्रदेश - ध्यान के लिए एकान्त प्रदेश अपेक्षित है । जो जनाकीर्ण स्थान में रहता है, उसके सामने इन्द्रियों के विषय प्रस्तुत होते रहते हैं । उनके सम्पर्क से कदाचित् मन व्याकुल हो जाता है । इसलिए एकान्तवास मुनि के लिए सामान्य मार्ग है, किन्तु जैन आचार्यों ने हर सत्य को अनेकान्तदृष्टि से देखा, इसलिए उनका यह आग्रह कभी नहीं रहा कि मुनि को एकान्तवासी ही होना चाहिए। भगवान् महावीर ने कहा"साधना गांव में भी हो सकती है और अरण्य में भी हो सकती है । साधना का भाव न हो तो वह गांव में भी नहीं हो सकती और अरण्य में भी नहीं हो सकती ।"" धीर व्यक्ति जनाकीर्णं और विजन -- दोनों स्थानों में समचित्त रह सकता है ।' अतः ध्यान के लिए प्रदेश की कोई ऐकान्तिक मर्यादा नहीं दी जा सकती । अनेकान्तदृष्टि से विचार किया जाए तो प्रदेश के सम्बन्ध में सामान्य मर्यादा यह है कि ध्यान का स्थान शून्य-गृह, गुफा आदि विजन प्रदेश होना चाहिए । जहां मन, वाणी और शरीर को समाधान मिले और जहां जीव-जन्तुओं का कोई उपद्रव न हो, वह स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त है । (३) काल - ध्यान के लिए काल की भी कोई ऐकान्तिक मर्यादा नहीं है । वह सार्वकालिक है- जब भावना हो तभी किया जा सकता है ।" ध्यानशतक के अनुसार जब मन को समाधान प्राप्त हो, वही समय ध्यान के लिए उपयुक्त है । उसके लिए दिन-रात आदि किसी समय का नियम नहीं किया जा सकता । ' (४) आसन - ध्यान के लिए शरीर की अवस्थिति का भी कोई नियम नहीं है । जिस अवस्थिति में ध्यान सुलभ हो, उसी में वह करना चाहिए । इस अभिमत के अनुसार ध्यान खड़े, बैठे और सोते -तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है ।" १. महापुराण, २१।७०-८० । २. आयारो, ८।१४ : गामे वा अदुवा रण्णे, णेव गामे णेव रण्णे धम्ममायाणह । ३. ध्यानशतक, ३६ । ४. वही, ३७ । ५. महापुराण, २१।८१ : न चाहोरात्र सन्ध्यादि-लक्षणः कालपर्ययः । नियतोऽस्यास्ति दिध्यासोः, तद्ध्यानं सार्वकालिकम् ॥ ६. ध्यानशतक, ३८ । ७. ध्यानशतक, ३६; महापुराण, २१।७५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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