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योग
जिसे प्राप्त हों, वही व्यक्ति उसका अधिकारी है। ध्यानशतक में उन विशेष गुणों का उल्लेख इस प्रकार है(१) अप्रमाद-मद्यपान, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा-ये
पांच प्रमाद हैं, इनसे जो मुक्त होता है। (२) निर्मोह-जिसका मोह उपशान्त या क्षीण होता है। (३) ज्ञान-सम्पन्न-जो ज्ञान-सम्पदा से युक्त होता है । इन तीन गुणों से युक्त व्यक्ति ही धर्मध्यान का अधिकारी होता
___ सामान्य धारणा यही रही है कि ध्यान का अधिकारी मुनि हो सकता है। रामसेन' और शुभचन्द्र का भी यही मत है। इसका अर्थ यह नहीं कि गृहस्थ के धर्मध्यान होता ही नहीं, किन्तु इसका अभिप्राय यह है कि उसके उत्तम कोटि का ध्यान नहीं होता।
__धर्मध्यान की तीन कोटियां हो सकती हैं-उत्तम, मध्यम और अवर । उत्तम कोटि का ध्यान अप्रमत्त व्यक्तियों का ही होता है। मध्यम और अवर कोटि का ध्यान शेष व्यक्तियों के हो सकता है। उनके लिए यही सीमा मान्य है कि इन्द्रिय और मन पर उनका निग्रह होना चाहिए।'
रामसेन ने अधिकारी की दृष्टि से धर्मध्यान को दो भागों में विभक्त किया है-मुख्य और उपचार। मुख्य धर्मध्यान का अधिकारी अप्रमत्त ही होता है। दूसरे लोग औपचारिक धर्मध्यान के अधिकारी होते हैं।' ध्यान की सामग्री (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) के आधार पर भी ध्याता और ध्यान के तीन-तीन प्रकार निश्चित किए गए हैंउत्कृष्ट सामग्री उत्कृष्ट ध्याता
उत्कृष्ट ध्लान मध्यम सामग्री मध्यम ध्याता
मध्यम ध्यान जघन्य सामग्री जघन्य ध्याता
जघन्य ध्यान
१. ध्यानशतक, ६३ । २. वही, ६३ । ३. तत्त्वानुशासन, ४१-४५ । ४. ज्ञानार्णव, ४।१७।। ५. तत्त्वानुशासन, ३८ : गुप्तेन्द्रियमना ध्याता। ६. तत्त्वानुसाशन, ४७ । ७. (क) वही, ४८,४६ ।
(ख) ज्ञानार्णव, २१४१०२ ।
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