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संस्कृति के दो प्रवाह ध्यान का सम्बन्ध केवल मन के साथ माना है। उनके अनुसार जिसमें धारणा की गई हो, उस देश में ध्येय-विषयक ज्ञान की एकतानता (अर्थात् सदृश प्रवाह), जो अन्य ज्ञानों से अपरामृष्ट हो, को ध्यान कहा जाता है। सदश प्रवाह का अभिप्राय यह है कि जिस ध्येय विषयक पहली वृत्ति हो, उसी विषय की दूसरी और उसी विषय की तीसरी हो-ध्येय से अन्य ज्ञान बीच में न हो।' पतञ्जलि ने एकाग्रता और निरोध-ये दोनों केवल चित्त के ही माने हैं। गरुडपुराण में भी ब्रह्म और आत्मा की चिन्ता को ध्यान कहा गया है।
बौद्धधारा में भी ध्यान मानसिक ही माना गया है। ध्यान केवल मानसिक ही नहीं, किन्तु वाचिक और कायिक भी है। यह अभिमत जैन आचार्यों का अपना मौलिक है।
पतञ्जलि ने ध्यान और समाधि-ये दो अंग पृथक् मान्य किए, इसलिए उनके योग-दर्शन में ध्यान का रूप बहुत विकसित नहीं हुआ। जैन आचार्यों ने ध्यान को इतने व्यापक अर्थ में स्वीकार किया कि उन्हें उससे पथक समाधि को मानने की आवश्यकता ही नहीं हुई। पतञ्जलि की भाषा में जो सम्प्रज्ञात समाधि है, वही जैन योग की भाषा में शुक्लध्यान का पूर्व चरण है। पतञ्जलि जिसे असम्प्रज्ञात कहते हैं, वह जैन-योग में शुक्ल-ध्यान का उत्तर चरण है। ध्यान से समाधि को पृथक् मानने की परम्परा जैन साधना पद्धति के उत्तर काल में स्थिर हुई, ऐसा प्रतीत होता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि जैनों की ध्यान विषयक मान्यता पतञ्जलि से प्रभावित नहीं
केवलज्ञानी के केवल निरोधात्मक ध्यान ही होता है, किन्तु जो केवलज्ञानी नहीं हैं उनके एकाग्रतात्मक और निरोधात्मक-दोनों ध्यान होते हैं। ध्यान का संबंध शरीर, वाणी और मन-तीनों से माना जाता रहा, फिर भी उसकी परिभाषा--चित्त की एकाग्रता ध्यान है---इस प्रकार की जाती रही है। भद्रबाहु के सामने यह प्रश्न उपस्थित था-यदि ध्यान का १. पातंजलयोगदर्शन ३।२ तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् । २. पातंजलयोगदर्शन १।१८ । ३. गरुडपुराण, अ० ४८ : ब्रह्मात्मचिन्ता ध्यानं स्यात् । ४. विशुद्धिमार्ग, पृ० १४१-१५१ ।। ५. पातंजलयोगदर्शन, यशोविजयजी, १११८ : तत्र पृथक्त्ववितर्कसविचारकत्व
वितर्काविचाराख्यशुक्लध्यानभेदद्वये सम्प्रज्ञातः समाधिवत्यर्थानां सम्यग्ज्ञानात् । ६. वही, यशोविजयजी, १११८ ।
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