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२१. साधना-पद्धति
साध्य की सम्पूर्ति के लिए साधना-पद्धति अपेक्षित होती है। प्रत्येक दर्शन ने अपने साध्य की सिद्धि के लिए उसका विकास किया है। उनमें से जैन दर्शन भी एक है।
सांख्य दर्शन की साधना-पद्धति का अविकल रूप महर्षि पतंजलि के योग-दर्शन में मिलता है। वह ई० पू० दूसरी शताब्दी की रचना है। पाणिनि के भाष्यकार, चरक के प्रति-संस्कर्ता और योग-दर्शन के कर्ता महर्षि पतञ्जलि एक ही व्यक्ति हैं । अतः उनका अस्तित्वकाल पाणिनी के बाद का है। मौर्य साम्राज्य का अस्तित्व ई० पू० ३२२ से १८५ तक माना जाता है। मौय-वंश का अंतिम राजा बृहद्रथ था। वह ई० पू० १८५ में अपने सेनापति पुष्यमित्र द्वारा मारा गया था। महर्षि पतंजलि पुष्यमित्र के समकालीन थे। इस तथ्य के आधार पर उनका अस्तित्व काल ई० पू० दूसरी शताब्दी है। बौद्ध दर्शन का साधना मार्ग 'अभिधम्मकोष' (ई० सन् पांचवी शताब्दी) और 'विसुद्धिमग्ग' (ई० सन् पांचवीं शताब्दी) में उपलब्ध है । उत्तराध्ययन उक्त तीनों ग्रन्थों से पूर्ववर्ती है । योग सूत्रकार पतञ्जलि और महाभाष्यकार पतञ्जलि एक व्यक्ति नहीं थे, यह नगेन्द्रनाथ वसु का अभिमत है। उनके अनुसार महाभाष्यकार के बहुत पहले कात्यायन ने अपने वार्तिक (६।१।६४) में पतञ्जलि का स्पष्ट नामोल्लेख किया है। अतः यह निश्चित है कि योग सूत्रकार पतञ्जलि कात्यायन के पूर्ववर्ती हैं। कुछ विद्वान् योग सूत्रकार पतञ्जलि को पाणिनी से पूर्ववर्ती मानते हैं, किन्तु यह ठीक नहीं है। पाणिनि ने कहीं पर भी पतञ्जलि, पातंजल दर्शन प्रतिपाद्य किसी पारिभाषिक शब्द का उल्लेख नहीं किया है।
पतञ्जलि ने अपने योग-दर्शन में ऐसे अनेक पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है, जो वैदिक-साहित्य के पारिभाषिक शब्दों से भिन्न हैं और श्रमगों के पारिभाषिक शब्दों से अभिन्न हैं। इससे यह फलित होता है कि पतञ्जलि की दृष्टि में श्रमणों की साधना-पद्धति प्रतिबिम्बित थी। साध्य
जैन दर्शन के अनुसार मनुष्य का साध्य है-मोक्ष या आत्मो१. विश्वकोष, भाग १३ पृ० २५४ ।
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