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संस्कृति के दो प्रवाह
पांचवां आधार है—उपबृंहण । संगठन की आत्मा है— गुण या विशेषता । गुण और अवगुण - ये दोनों मनुष्य के सहचारी हैं । गुण की वृद्धि और अवगुण का शोधन करना संगठन के लिए बहुत ही आवश्यक होता है। पर इसमें बहुत सतर्कता बरती जानी चाहिए । अवगुण का प्रतिकार होना चाहिए पर उसे प्रसारित कर संगठन के सामने जटिलता पैदा नहीं करनी चाहिए । गुण का विकास करना चाहिए पर उसके प्रति ईर्ष्या या उन्माद न हो, ऐसी सजगता रहनी चाहिए । इसी सूत्र के आधार पर यह विचार विकसित हुआ था कि जो एक साधु की पूजा करता है, वह सब साधुओं की पूजा करता है यानी साधुता की पूजा करता है । जो एक साधु की अवहेलना करता है, वह सब साधुओं की अवहेलना करता है यानी साधुता की अवहेलना करता है ।
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संगठन का छठा आधार है— स्थिरीकरण । अनेक लोगों का एक लक्ष्य के प्रति आकृष्ट होना भी कठिन है और उससे भी कठिन है, उस पर टिके रहना । आन्तरिक और बाहरी ऐसे दबाव होते हैं कि आदमी दब जाता है । शारीरिक और मानसिक ऐसी परिस्थितियां होती हैं कि आदमी पराजित हो जाता है और तब वह लक्ष्य को छोड़ कर दूर भागना चाहता है । उस समय उसे लक्ष्य में फिर से स्थिर करना संगठन के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
स्थिरीकरण के हेतु अनेक हो सकते हैं । उनमें सबसे बड़ा हेतु है वात्सल्य और यही सातवां आधार है । सेवा और संविभाग इसी पर विकसित हुए हैं । भगवान् ने कहा - ' असं विभागी को मोक्ष नहीं मिलता । जो संविभाग को नहीं जानता, वह अपने आपको अनगिन बन्धनों में जकड़ ता है, फिर मुक्ति की कल्पना कहां ?' इसी सूत्र के आधार पर उत्तरवर्ती आचार्यों ने भगवान् के मुंह से कहलाया कि जो रोगी साधु की सेवा करता है, वह मेरी सेवा करता है और एकात्मता की भाषा में गाया गया'भिन्न-भिन्न देश में उत्पन्न हुए, भिन्न-भिन्न आहार से शरीर बढ़ा किन्तु जैसे ही वे जिनशासन में आए, वैसे ही सब भाई हो गए ।' यह भाईचारा और सेवाभाव ही संगठन की सुदृढ़ आधारशिला है ।
आठवां आधार है - प्रभावना । वही संगठन टिक सकता है जो प्रभावशाली होता है । लक्ष्यपूर्ति के साधनों को प्रभावशाली बनाए रखे बिना उनकी ओर किसी का झुकाव ही नहीं होता । दूसरों के मन को भावित करने की क्षमता रखने वाले ही संगठन को प्रभावशाली बना सकते
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