Book Title: Sanskruti ke Do Pravah
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 210
________________ योग २०३ वह दण्ड की भांति शरीर को लम्बा कर, सीधा सोकर किया जाता है । ' वर्तमान में करणीय आसन जैन परम्परा में कठोर आसन और सुखासन - दोनों प्रकार के आसन प्रचलित थे, किन्तु विक्रम की सहस्राब्दी के अन्तिम चरण में कुछ आचार्यों की यह धारणा बन गई कि वर्तमानकाल में शारीरिक शक्ति की दुर्बलता के कारण कायोत्सर्ग और पर्यङ्क—ये दो आसन ही प्रशस्त हैं । " आसन तीन प्रयोजनों से किए जाने थे - ( १ ) इंद्रिय - निग्रह के लिए, (२) विशिष्ट विशुद्धि के लिए और ( ३ ) ध्यान के लिए । विशिष्ट विशुद्धि के लिए तथा किंचित् मात्रा में इंद्रिय - निग्रह के लिए किए जाने वाले आसन उग्र होते इसलिए उन्हें काय- क्लेश तप की कोटि में रखा गया । ध्यान के लिए कठोर आसन का विधान नहीं है। जिस आसन से मन स्थिर हो, वही आसन विहित है ।" जिनसेन ने ध्यान की दृष्टि से शरीर की विषम स्थिति को 'अनुपयुक्त बतलाया । उन्होंने लिखा- 'विषम आसनों से शरीर का निग्रह होता है, उससे मानसिक पीड़ा और विमनस्कता होती है । विमनस्कता की स्थिति में ध्यान नहीं हो सकता । अतः ध्यानकाल में सुखासन ही इष्ट है । कायोत्सर्ग और पर्यङ्क – ये दो आसन सुखासन हैं, शेष सब विषम आसन हैं । इन दोनों में भी मुख्यतः पर्यङ्क ही सुखासन है ।" १. मूलाराधना, ३।२२५, विजयोदया वृत्ति : दण्डवदायतं शरीरं कृत्वा शयनम् । २. ज्ञानार्णव, २८।१२ । कायोत्सर्गश्च पर्यङ्कः, प्रशस्तं कैश्चिदीरितम् । देहिनां वीर्यवैकल्यात्, कालदोषेण सम्प्रति ॥ ३. ( क ) ज्ञानार्णव, २८।११ : येन येन सुखासीना, विदध्युर्निश्चलं मनः । तत्तदेव विधेयं स्यान्मुनिभिर्बन्धुरासनम् ।। (ख) योगशास्त्र, ४ । १३४ : जायते येन येनेह विहितेन स्थिरं मनः । तत् तदेव विधातव्यमासनं ध्यानमासनम् ।। ४. महापुराण २११७०-७२ : विसंस्थुलासनस्थस्य, ध्रुवं गात्रस्य निग्रहः । तन्निग्रहान्मनः पीडा, ततश्च विमनस्कता ॥ वैमनस्ये च किं ध्यायेत्, तस्मादिष्टं सुखासनम् । कायोत्सर्गश्च पर्यकस्ततोऽन्यद्द्द्विषमासनम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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