________________
योग
२०६
इस तप का प्रयोजन है स्वाद - विजय । इसीलिए रस-परित्याग करने वाला विकृति, सरस व स्वादु भोजन नहीं खाता । विकृतियां नौ हैं—'
१. दूध, २. दही, ३. नवनीत
४. घृत, ५. तैल,
इनमें मधु, मद्य, मांस और नवनीत - ये चार महा विकृतियां हैं । जिन वस्तुओं से जीभ और मन विकृत होते हैं - स्वाद - लोलुप या विषय- लोलुप बनते हैं, उन्हें 'विकृति' कहा जाता है। पण्डित आशाधरजी ने इसके चार प्रकार बतलाए हैं'.
६. गुड,
७. मधु,
८. मद्य और ६. मांस ।
१. गो-रस विकृति - दूध, दही, घृत, मक्खन आदि । २. इक्षु-रस विकृति - गुड़, चीनी आदि ।
३. फल - रस विकृति - अंगूर, आम आदि फलों के रस । ४. धान्य- रस विकृति - तेल, मांड आदि ।
स्वादिष्ट भोजन को भी विकृति कहा जाता है । इसलिए रसपरित्याग करने वाला शाक, व्यंजन, नमक आदि का भी वर्जन करता है । मूलाराधना के अनुसार दूध, दही, घृत, तैल और गुड़-इनमें से किसी एक का अथवा इन सबका परित्याग करना रस- परित्याग है तथा अवगाहिम विकृति (मिठाई ) पूड़े, पत्र- शाक, दाल, नमक आदि का त्याग भी रसपरित्याग है । "
रस - परित्याग करने वाले मुनि के लिए निम्न प्रकार के भोजन का विधान है -
१. अरस आहार - स्वाद रहित भोजन । २. अन्य वेला कृत — ठण्डा भोजन ।
१. स्थानांग,
२३ । २. (क) स्थानांग, ४ । १८५ ।
(ख) मूलाराधना, ३।२१३ | ३. सागारधर्मामृत, टीका ५।३५ ४. सागारधर्मामृत, टीका ५। ३५ । ५. मूलाराधना, ३।२१५ । ६. वही, ३।२१६ |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org