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संस्कृति के दो प्रवाह जिनसेन ने ध्यान के लिए सुखासन की उपयुक्तता स्वीकृत की, किंतु कठोर आसनों को सर्वथा अनुपयुक्त नहीं माना । कायिक दुःखों की तितिक्षा, सुखासक्ति की हानि और धर्म-प्रभावना के लिए उन्होंने कायक्लेश का समर्थन किया। ___ शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने ध्यान के लिए किसी आसन का विधान नहीं किया। उसे ध्यान करने वाले की इच्छा पर ही छोड़ दिया। अमितगति ने पद्मासन, पर्यङ्कासन, वीरासन, उत्कटुकासन और गवासन-- सामान्यतः इतने ही आसन मुमुक्षु के लिए उपयोगी बतलाए।
ध्यान के लिए सुखासन होना चाहिए, इस विषय में सभी आचार्य एकमत हैं, किन्तु कठोर आसनों के विषय में एकमत नहीं हैं । 'कालदोषेण सम्प्रति'---इस विचारधारा ने जैसे साधना के अन्य अनेक क्षेत्रों को प्रभावित किया, वैसे ही आसन भी उससे प्रभावित हुए और उनको करने की पद्धति जैन परम्परा में विलुप्त-सी हो गई। गमनयोग
यह स्थानयोग का प्रतिपक्षी है। शक्ति-संचय और आलस्य-विजय के द्वारा इस योग का प्रतिपादन हुआ है। इसके छह प्रकार हैं
१. अनुसूर्यगमन- तेज धूप में पूर्व से पश्चिम की ओर जाना। २. प्रतिसूर्यगमन- पश्चिम से पूर्व की ओर जाना। ३. ऊर्ध्वगमन- सूर्य मध्य में हो, उस समय जाना । ४. तिर्यकसूर्यगमन- सूर्य तिरछा हो, उस समय जाना।
तदवस्थाद्वयस्यैव, प्राधान्यं ध्यायतो यतेः । प्रायस्तत्रापि पल्यङ्क, आमनन्ति सुखासनम् ।। १. वही, २०६१ : कायासुखतितिक्षार्थ, सुखासक्तेश्च हानये ।
धर्मप्रभावनार्थञ्च, कायक्लेशमुपेयुषे ।। २. अमितगति श्रावकाचार, ८१४६ । विनयासक्तचित्तानां, कृतिकर्मविधायिनाम् ।
न कार्यव्यतिरेकेण, परमासनमिष्यते ।। ३. मूलाराधना, ३।२२४ :
अणुसूरी पडिसूरी य, उड्ढसूरी य तिरियसूरी य । उभागेण य गमणं, पडिआगमणं च गंतूणं ।।
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