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संस्कृति के दो प्रवाह तो वज्रासन को अर्ध-पर्यङ्कासन माना जा सकता है। किन्तु जैन आचार्यों का मत इससे भिन्न है। वे वज्रासन की मुद्रा को पर्यङ्कासन और अर्धवज्रासन (एक घुटने को ऊपर रख कर बैठने की मुद्रा) को अर्ध-पर्यङ्कासन मानते हैं। वीरासन
शङ्कराचार्य के अनुसार किसी एक पैर को सिकोड़ घुटने को ऊपर की ओर रखकर दूसरे पैर के घुटने को भूमि से सटा कर बैठना वीरासन है।' बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार कुर्सी पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती है, उस स्थिति में कुर्सी के बिना रहना वीरासन है। ... अपराजितसूरि (विक्रम की १२ वीं शताब्दी) ने वीरासन का अर्थ 'दोनों जंघाओं में अन्तर डाल कर उन्हें फैला कर बैठना' किया है।
___ आचार्य हेमचन्द्र ने बृहत्कल्प भाष्य के अर्थ को मतान्तर के रूप में स्वीकृत किया है। उनका अपना मत यह है-बाएं पैर को दाई जंघा पर और दाएं पैर को बाई जंघा पर रख कर बैठना वीरासन है। उनके अनुसार इस मुद्रा को कुछ योगाचार्य पद्मासन भी मानते हैं। पं० आशाधर
१. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५६५३, वृत्ति : अर्धपर्यङ्का यस्यामेकं जानुमुत्पाटयति । २. पातञ्जलयोगसूत्र, २।४७, भाष्यविवरण : कुंचितान्यतरपादमवनिविन्यस्ता. परजानुकं वीरासनम् ।। ३. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५६५४, वृत्ति: 'वीरासणं तु सीहासणे व जह मुक्कजण्णुकणिविट्ठो'-वृत्ति-वीरासनं नाम यथा सिंहासने उपविष्टो भून्यस्तपाद आस्ते तथा तस्यापनयने कृतेऽपि सिंहासन इव निविष्टो मुक्तजानुक इव निरालम्बनेऽपि यद् आस्ते । दुष्करं चैतद्, अतएव वीरस्य-साहसिकस्यासनं विरासनमित्युच्यते । ४. मूलाराधना, ३।२२५, विजयोदया वृत्ति : वीरासणं-जंघे विप्रकृष्टदेशे
कृत्वासनम् । ५. योगशास्त्र, ४।१२८ : सिंहासनाधिरूढस्यासनापनयने सति ।
तथैवाव स्थिति तामन्ये वीरासनं विदुः ॥ ६. वही, ४।१२६ :
वामोऽह्रिर्द क्षिणोरूध्वं, वामोरूपरि दक्षिणः । क्रियते यत्र तद्वीरोचितं वीरासनं स्मृतम् ।। ७. वही, ४११२६ वृत्ति : पद्मासनमित्येके ।
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