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कर्मवाद और लेश्या
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पाप विभक्त किए जाते हैं, तब इनकी आठ जातियां बन जाती हैं, जिन्हें आठ कर्म कहा गया है
१. ज्ञानावरण-इससे ज्ञान आवृत होता है, इसलिए यह पाप है। २. दर्शनावरण--इससे दर्शन आवृत होता है, इसलिए यह पाप है। ३. मोहनीय---इससे दष्टि और चारित्र विकत होते हैं, इसलिए यह
पाप है। ४. अन्तराय-इससे आत्मा का वीर्य प्रतिहत होता है, इसलिए यह
पाप है। ५. वेदनीय-यह सुख और दुःख की वेदना का हेतु बनता है।
इसलिए यह पुण्य भी है और पाप भी है। ६. नाम-यह शुभ और अशुभ अभिव्यक्ति का हेतु बनता है,
इसलिए यह पूण्य भी है और पाप भी है। ७. गोत्र--यह उच्च और नीच संयोगों का हेतु बनता है, इसलिए
__ यह पुण्य भी है और पाप भी है। ८. आयुष्य-यह शुभ और अशुभ जीवन का हेतु बनता है, इसलिए
यह पूण्य भी है और पाप भी है। जीव पुण्य या पाप नहीं है और पुद्गल भी पुण्य या पाप नहीं है। जीव और पुद्गल का संयोग होने पर जो स्थिति बनती है, वह पुण्य या पाप है।
इन पुण्य या पाप कर्मों के द्वारा जीवों में विविध परिवर्तन होते रहते हैं। इस जगत् के नानात्व का सर्वोपरि कारण है कर्म-समूह । कर्मों के पुद्गल सूक्ष्म हैं । उनसे ऐसे रहस्यपूर्ण कार्य घटित होते हैं, जिनकी सामान्य बुद्धि व्याख्या ही नहीं कर सकती या जिन्हें बहुत सारे लोग ईश्वर की लीला कह कर सन्तोष मानते हैं। यदि हम जीव और कर्म पुद्गलों की संयोगिक प्रक्रियाओं को गहराई से समझ लें तो हम सृष्टि की सहज व्याख्या कर सकते हैं और जटिलताओं से भी बच जाते हैं, जो ईश्वरीय सृष्टि की व्याख्या में उत्पन्न होती हैं। लेश्या : चेतन और अचेतन के संयोग का माध्यम
जितने स्थूल परमाणु स्कन्ध होते हैं, वे सब प्रकार के रंगों और उपरंगों से युक्त होते हैं। मनुष्य का शरीर स्थूल स्कन्ध है, इसलिए वह भी सब रंगों से युक्त है । वह रंगीन है, इसीलिए बाह्य रंगों से प्रभावित होता है । उनका प्रभाव मनुष्य के मन पर भी पड़ता है। इस प्रभाव-शक्ति
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