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संस्कृति के दो प्रवाह
में आकर अपने चिरपरिचित बौद्ध शत्रुओं के साथ जरा भी दया नहीं दिखाई। उनके बड़े-बड़े विहार लूट कर जला दिए गए, भिक्षुओं के संघाराम नष्ट कर दिए गए। उनके रहने के लिए स्थान नहीं रह गए । देश की उस विपन्नावस्था में कहीं आशा नहीं रह गई और पड़ोस के बौद्ध देश उनका स्वागत करने के लिए तैयार थे । इस तरह भारतीय बौद्ध-संघ के प्रधान कश्मीरी पण्डित 'शाक्य श्रीमद्' विक्रमशिला विश्वविद्यालय के ध्वस्त होने के बाद भाग कर पूर्वी बंगाल के 'जगत्तला' विहार में पहुंचे । जब वहां भी तुर्कों की तलवार गई, तो वे अपने शिष्यों के साथ भाग कर नेपाल गए । उनके आने की खबर सुन कर भोट (तिब्बत) सामन्त कीर्तिध्वज ने उन्हें अपने यहां निमन्त्रित किया । विक्रमशिला के संघराज कई सालों तक भोट में रहे और अन्त में ऊपर ही ऊपर अपनी जन्मभूमि कश्मीर में जा कर उन्होंने १२२६ ई० में शरीर को छोड़ा । 'शाक्य श्रीमद्' की तरह न जाने कितने बौद्ध भिक्षुओं और धर्माचार्यों ने बाहर के देशों में जाकर शरण ली। बौद्धों के धार्मिक नेता गृहस्थ नहीं, भिक्षु थे । इसलिए एक जगह छोड़ कर दूसरी जगह चला जाना उनके लिए आसान था । बाहरी बौद्ध देशों में जहां उनकी बहुत आवभगत थी, वहां देश में उनके रंगे कपड़े मृत्यु के वारंट थे । यह कारण था, जिससे कि भारत के बौद्धकेन्द्र बहुत जल्दी बौद्ध भिक्षुओं से शून्य हो गए। अपने धार्मिक नेताओं के अभाव में बौद्ध धर्म बहुत दिनों तक टिक नहीं सकता था । और इस प्रकार वह भारत में तुर्कों के पैर रखने के एक-डेढ़ शताब्दि में ही लुप्त हो गया । वज्रयान के सुरा सुन्दरी सेवन ने चरित्र बल को खोखला करके इस काम में और सहायता की । '
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१. (क) बौद्ध संस्कृति, पृ० ३३-३४ । (ख) बुद्धचर्या, पृ १२-१३ ।
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